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*नित्य विहार पथिकों के लिये*

तितली को उड़ते देख आपके भीतर क्या भाव होता है ... अगर उसे पकड़ने का तो ख्याल कीजिये स्पर्श उसके लिये सुखद नहीँ , हम तितली को नहीँ उड़ने देते प्रियालाल के विहार के लिये कहाँ योग्य ???
सुन्दर सुगन्धित पुष्प को देख कर हमारे भीतर प्रथम क्या भाव उठता है ... उसे तोड़ने का , अगर पुष्प के सहज जीवन को क्षणिक भोगार्थ हम खण्डित कर सकते है , तो अति सुकोमल युगल के प्रति कैसे निर्मल भाव होगा ... ???
( अब यहाँ बहुत से मनस्वी कहेंगे पुष्प को प्रभु के लिये तोड़े है । तो हम निवेदन करें वह जहाँ खिल रहा है उनके ही निमित्त उनके ही सुवास से प्रकट हुआ है । उनकी ही सौंदर्य प्रभा को लताओं ने गहनता से अनुभूत किया है कि परिणाम इतना सुंदर । वासनाओं का निरोध हो । और प्रभु सेवा के लिये पुष्प , उनके ही निमित्त लगाने पर तोड़े वह भी सविनय । )
प्रकृति से सहज संगीत प्रकट होता है ... जैसे बारिश की आवाज । पत्तो के हिलने की आवाज़ आदि । क्या यह सब आपको आकर्षित करते है क्योंकि सहज संगीत से ही गहन राग रागिनियों के प्रति आसक्ति होगी जिससे परिणामतः नित्य रस में अनुभूति होगी । गहनतम रागिनियों को जो नहीँ सुन सकते वह नित्य विहार में कैसे प्रियालाल के रसवर्धन में भाग लेंगे ।
नित्य विहार क्यों ?
इस प्रश्न का उत्तर अगर आंतरिक भी कोई सुख है तो हमारेे नित्य विहार उपस्थिति से युगल को क्या विशेष सुख ? क्यों रसभाव सखियाँ ... वहाँ हमको ले जाना चाहेगी ?
हमारी वाणी केवल प्रिया लाल रस गान के अतिरिक्त अन्य का गुण-दोष बखान करती है , अथवा अभिव्यक्ति अपनी ही महिमा में लगी है तो कैसे नित्य विहार की भावना भी समृद्ध होगी ?
आज कल शोर को संगीत कहते है , श्यामसुन्दर की रस सार वेणु को केवल उनका श्रृंगार ही मान हम खुश हो लें , उसके नाद को अपना निमंत्रण न माने तो कैसे वेणु रव प्रकट होगा और कैसे नित्य विहार के नित्य वेणु रव से हमें सुख होगा ।
बहुत से साधक गोपन में विश्वास करते है , जब तक स्वयं का लघुत्तम भी हित हृदय में है और युगल सुख के लिये युगल रस न तो व्यसन हुआ अपितु उसकी चर्चा से लज्जा आती है तो क्यों नित्य विहार प्रकट होगा ?
सहज होना है ... बहुत बार युगल के सन्मुख भी उनके किसी भी भेद शून्य नेत्रो को हम नहीँ समझते । उन्हें भेद कहां आता है ... स्त्री-पुरुष या अमीर-गरीब , सन्त-असन्त के भिन्न खण्ड हेतु मन्दिरो में ही सेवायत भले हम हो । अभेदता पीड़ा देती हो तब तक भेद से पीड़ा कैसे होगी (अर्थात अभी सब कुछ एक सा नही दिख रहा , हम दल बना रहे है तो मानिये हम गड़बड़ है , युगल भेद शुन्य न होते तो कोटि जन्मों तक हमें उनके स्वरूप दर्शन का भी अधिकार अभी न होता)और जब तक किसी भी भेद से पीड़ा नहीँ हुई युगल हृदय की अनुभूति कैसे होगी । नित्य विहार में तृण से परिकरी तक सब कुछ सहचरी तत्व ही है ।
निभृत रस में युगल की सेवा हेतु कुछ साधक हमने विलाप करते देखें , जिसे दर्शन तृप्ति भी चाहिये वह सेवायत नहीँ होगा , सेवा स्वरुचि से नहीँ ... स्वामी की आवश्यकता से विकसित होती है । जो अत्यधिक सेवा की भावना करता हो वह मूलतः अत्यधिक श्रमित उन्हें करना चाहता है ... जैसे कि कुछ साधक पद स्पर्श हेतु भावना करते है युगल के नृत्य में श्रमित हो पद नूपुर आदि आभूषण को धारण कराने की , यह लीला जिनके संग हुई संयोग से हुई । अब हम धारणा ही करें कि नूपुर पृथक हो जाएं तो क्या हम सेवा के योग्य है , वह नूपुर क्या कोई सामान्य नूपुर है ...वह भी तो सेवायत है , नृत्य अथवा किसी भी गति विधि के मध्य ही जो युगल के अंग-वस्त्र -आभूषण को सहजना चाहे वह गहन पथिक है ।
युगल से अपना नही , युगल का ही परस्पर मिलन जिसकी वास्तविक तृषा न हो जाएं वह नित्य विहार में क्या करेंगे ... उनके सुख का चिन्तन जहाँ सहज प्रकट वही विहार प्रकट है  ।
वास्तव में नित्य विहार का पथिक बहुत प्यासा होता है । भौतिक इस प्राकृत जगत में विहरे या नित्य रस प्रियालाल सेवतुर विहरे क्योंकि सम्भव है दोनों और एक साथ स्थिति होना ... भाव रूप वहाँ और पदार्थ रूप यहाँ परन्तु स्थिति कौनसी पकड़ी हुई है यह अनुराग का विषय है । निर्मल वैराग्य न हो तो विहार में होकर भी हम विहार में नही होते । नित्य विहार में विहरने को रसिक 15 घण्टे तक नित्य स्थित हो जाते थे । जिसे भजन या लीलादर्शन कुछ भी हम कहते है । प्राण एक साथ दो जगह हो और दोनों ही जगह संवाद हो सकें यह तो सिद्धि है , हम नकार नहीँ रहे परन्तु यह अति गहन है ।
--- तृषित ।

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