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जून, 2017 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

क्या है माया? क्या है ब्रह्म?

पंचवटी आश्रम में एक बार लक्ष्मण जी प्रभुश्रीरामजी के चरणसेवा कर रहे थे। लक्ष्मण जी ने पूछा है प्रभु हमे बताएं कि माया ओर ब्रह्म क्या है? प्रभुश्रीराम ने जो बताया उसे आप भी सुनें। * ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ। जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ॥ भावार्थ:-हे प्रभो! ईश्वर और जीव का भेद भी सब समझाकर कहिए, जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो और शोक, मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाएँ॥ * थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई। सुनहु तात मति मन चित लाई॥ मैं अरु मोर तोर तैं माया। जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥ भावार्थ:-(श्री रामजी ने कहा-) हे तात! मैं थोड़े ही में सब समझाकर कहे देता हूँ। तुम मन, चित्त और बुद्धि लगाकर सुनो! मैं और मेरा, तू और तेरा- यही माया है, जिसने समस्त जीवों को वश में कर रखा है॥ * गो गोचर जहँ लगि मन जाई। सो सब माया जानेहु भाई॥ तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। बिद्या अपर अबिद्या दोऊ॥ भावार्थ:-इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना। उसके भी एक विद्या और दूसरी अविद्या, इन दोनों भेदों को तुम सुनो-॥ * एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा। जा बस ज...

'ब्रजभाव माधुर्य'खंड : श्री कृपालु महाप्रभु/गुरुतत्व

राधे राधे.. 'ब्रजभाव माधुर्य' खंड : श्री कृपालु महाप्रभु/गुरुतत्व 'कृपालुता : वे हमारी रक्षा करते हैं' जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी एक ओर तो जहाँ 'जगद्गुरुत्तम्' के पद पर आसीन हैं तथापि एक गुरु के रुप में वे अपने शरणागत के अत्यंत ही निकट हैं. शरणागत के प्रति उनका अत्यंत वात्सल्य है, यह प्रत्येक शरणागत अपनी शरणागति की मात्रा के अनुसार अनुभव स्वयं में करता ही है. गुरु अपने शरणागत का सदा ध्यान रखते हैं. उनके समर्पण, हमारे प्रति उनके कठिन परिश्रम को हम मायाधीन किञ्चित् रुप में भी महसूस नहीं कर सकते. हम पर वे चोरी-चोरी अनुग्रह करते हैं. श्री महाराज जी (कृपालु महाप्रभु) प्रत्येक साधक के सदा साथ रहकर भीतर-भीतर ही उनके कुसंस्कार और प्रारब्ध से लड़कर उनकी रक्षा कर रहे हैं. साधकों ने उनसे जुड़ी चीजों को 'प्राणनिधि' मानकर संजोकर रखा है, उन सबकी अप्रत्यक्ष रुप में संभाल भी वे करते हैं, कर रहे हैं. अनेक साधकों के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित हुई हैं, शिक्षा गुप्ता, जो श्री महाराज जी की सत्संगी रही हैं, ने अपनी स्मृति बतलाई है जो हम साधकों के मन ...

सनातन धर्म के अनुसार भोजन ग्रहण करने के कुछ नियम है

१ पांच अंगो ( दो हाथ , २ पैर , मुख ) को अच्छी तरह से धो कर ही भोजन करे ! २. गीले पैरों खाने से आयु में वृद्धि होती है ! ३. प्रातः और सायं ही भोजन का विधान है ! ४. पूर्व और उत्तर दिशा की ओर मुह करके ही खाना चाहिए ! ५. दक्षिण दिशा की ओर किया हुआ भोजन प्रेत को प्राप्त होता है ! ६ . पश्चिम दिशा की ओर किया हुआ भोजन खाने से रोग की वृद्धि होती है ! ७. शैय्या पर , हाथ पर रख कर , टूटे फूटे वर्तनो में भोजन नहीं करना चाहिए ! ८. मल मूत्र का वेग होने पर , कलह के माहौल में , अधिक शोर में , पीपल , वट वृक्ष के नीचे , भोजन नहीं करना चाहिए ! ९ परोसे हुए भोजन की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए ! १०. खाने से पूर्व अन्न देवता , अन्नपूर्णा माता की स्तुति कर के , उनका धन्यवाद देते हुए , तथा सभी भूखो को भोजन प्राप्त हो इस्वर से ऐसी प्राथना करके भोजन करना चाहिए ! ११. भोजन बनने वाला स्नान करके ही शुद्ध मन से , मंत्र जप करते हुए ही रसोई में भोजन बनाये और सबसे पहले ३ रोटिया अलग निकाल कर ( गाय , कुत्ता , और कौवे हेतु ) फिर अग्नि देव का भोग लगा कर ही घर वालो को खिलाये ! १२. इर्षा , भय , क्रोध ...