'ब्रजभाव माधुर्य'
खंड : श्री कृपालु महाप्रभु/गुरुतत्व
'कृपालुता : वे हमारी रक्षा करते हैं'
जगद्गुरुत्तम् श्री कृपालु महाप्रभु जी एक ओर तो जहाँ 'जगद्गुरुत्तम्' के पद पर आसीन हैं तथापि एक गुरु के रुप में वे अपने शरणागत के अत्यंत ही निकट हैं. शरणागत के प्रति उनका अत्यंत वात्सल्य है, यह प्रत्येक शरणागत अपनी शरणागति की मात्रा के अनुसार अनुभव स्वयं में करता ही है. गुरु अपने शरणागत का सदा ध्यान रखते हैं. उनके समर्पण, हमारे प्रति उनके कठिन परिश्रम को हम मायाधीन किञ्चित् रुप में भी महसूस नहीं कर सकते. हम पर वे चोरी-चोरी अनुग्रह करते हैं.
श्री महाराज जी (कृपालु महाप्रभु) प्रत्येक साधक के सदा साथ रहकर भीतर-भीतर ही उनके कुसंस्कार और प्रारब्ध से लड़कर उनकी रक्षा कर रहे हैं. साधकों ने उनसे जुड़ी चीजों को 'प्राणनिधि' मानकर संजोकर रखा है, उन सबकी अप्रत्यक्ष रुप में संभाल भी वे करते हैं, कर रहे हैं. अनेक साधकों के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटित हुई हैं, शिक्षा गुप्ता, जो श्री महाराज जी की सत्संगी रही हैं, ने अपनी स्मृति बतलाई है जो हम साधकों के मन में गुरुकृपा के प्रति विश्वास दृढ़ करने में सहायक हो सकता है, अतः यह स्मृति साझा कर रहे हैं.
शिक्षा गुप्ता (लखनऊ) ने बताया कि : गुरुदेव को देखते ही लगा, यही असली गुरु हैं जिसे तू ढूँढ रही थी. मनगढ़ (श्री कृपालु महाप्रभु जी का जन्मस्थान) गई. श्री महाराज जी को दूर से प्रणाम किया. उन्होंने मेरा सिर पकड़कर चरणों में रखा और कहा - इसी से तेरी यह खोपड़ी सही होगी. सत्संग आरम्भ हुआ तो भूख-प्यास बिल्कुल बंद हो गई. हर समय अश्रु चलते रहते. लेटती तो लगता भगवान् बुला रहे हैं. आँख खोलने पर कुछ न दीखता. मुझे साधना-सेवादि के विषय में श्री महाराज जी से प्रथम स्वप्न में निर्देश मिलते. पुनः उसी को श्री महाराज जी प्रवचनादि के दौरान प्रत्यक्ष दुहरा देते.
एक बार जब मैं सत्संग में आई, मेरे पति ने मेरी पुस्तकें प्रेम रस सिद्धांत, प्रेम रस मदिरा (दोनों कृपालु महाप्रभु विरचित ग्रन्थ) आदि तथा पूरा पूजा का सामान कुएँ में फेंक दिया. 7 दिनों के बाद जब मैं लखनऊ लौटी और नौकर पानी भरने गया तो उसकी बाल्टी में सब सामान आ गया. उसने वह सामान मुझे लाकर दिया. कोई भी पुस्तक अथवा रजिस्टर भीगा अथवा खराब नहीं हुआ था. पतिदेव को जब मैंने बताया कि 7 दिन तक पानी में रहने के बाद भी ये पुस्तकें नहीं भीगी तो उन्हें श्री महाराज जी की शक्ति और अनुग्रह पर विश्वास होने लगा. उसके बाद से वे स्वयं सत्संग में आने लगे. (यह घटना लगभग 50 वर्ष पुरानी है.)
यद्यपि वास्तविक महापुरुष चमत्कार से सर्वथा दूर रहते हैं फिर भी अपने शरणागत का ध्यान वे हर प्रकार से रखते हैं. तब तक जब तक वह भगवान् की गोद में बैठने के लायक नहीं बन जाता. इनके वरदहस्त के समक्ष विकराल कलिकाल की भी एक नहीं चलती. 'गुरु मेरी सदा संभाल करेंगे, यह साधक का दृढ़ निश्चय और विश्वास होना चाहिए'.
Ref. 'आध्यात्म सन्देश' पत्रिका, जुलाई 2000 अंक (साधना भवन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित)
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# सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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राधे राधे ।