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भगवत कृपा और वैराग्य

संसार में प्रथम तो वैराग्य होना कठिन है। यदि वैराग्य हो भी गया तो कर्म" यह गुन साधन तें नहिं होई। तुम्हारी कृपा पाव कोई कोई।।"काण्ड का छूटना कठिन है। यदि कर्मकाण्ड से छुटकारा मिल गया तो काम क्रोधादि से छूटकर दैवी सम्पत्ति प्राप्त करना कठिन है। यदि दैवी संपत्ति भी आ गई तो भी सदगुरु मिलना कठिन है। यदि सदगुरु भी मिल जाय तो भी उनके वाक्य में श्रद्धा होकर ज्ञान होना कठिन है। और यदि ज्ञान भी हो जाय तो भी चित्त- वृत्ति का स्थिर रहना कठिन है। यह स्थिति तो केवल भगवत्कृपा से ही होती है, इसका कोई अन्य साधन नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास जी भी कहते हैं :--अतः विषयों से मन को हटाकर भगवत्तत्व गुरु से पूर्ण श्रद्धा के साथ समझकर उनके बताये गए मार्ग का ही अनुसरण करना चाहिए। तभी हमारा कल्याण होगा। जो मनुष्य संसार को नाशवान और हरि- गुरु को सदा का साथी समझकर चलता है, वही उत्तम गति पाता है।......जगद्गुरू श्री कृपालु महाराजजी।

संत कहते हैं:- तुलसी सुख सोए एक राम भरोसे

गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज भगवान श्रीराम जी जैसा स्वामी पाकर और उनके गुण समूहों को सुनकर, स्मरण कर आनन्दित रहते थे । जब अपने अवगुणों के तरफ ध्यान जाता था तो मन थोड़ा अधीर हो जाता था । लेकिन दूसरे ही पल जब रघुनाथ जी के गुणों के बारे में सोचते थे तो शरीर रोमांचित हो जाता था । क्योंकि अपनी सारी समस्याओं का समाधान रघुनाथ जी के गुणों में पा जाते थे ।   जब गोस्वामी जी ने राम जी के गुणों और उनके स्वभाव को भलीभाँति जान लिया तो फिर निश्चिंत होकर रहने लगे । सुख से सोने लगे । क्योंकि उन्हें राम जी पर पूरा विश्वास और भरोसा हो गया था । और रघुनाथ जी किसी के भी विश्वास और भरोसे को कभी नहीं तोड़ते । जिसको भगवान श्रीराम का भरोसा हो, विश्वास हो, वह तो सुख से सोयेगा ही । उसे चिंता करने की जरूरत नहीं होती । उसे बस किसी भी सदकाम के लिए जितना हो सके सदपरिश्रम करके निश्चिंत हो जाना चाहिए । गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज स्वयं कहते थे कि मुझ तुलसी दास को आरतपाल, दीनबन्धु सर्वसमर्थ श्रीराम जी का भरोसा है । और इसलिए मैं सुख पूर्वक रहता हूँ । सुख से सोता हूँ ।   तात्पर्य यह है कि भगवान श्रीराम अनू...

प्रियाप्रियतम और सखियां

आली पिय प्यारी छाँह होहि। दुई देह ज्यौ वाकी छाँवली,तैसेई जानिहौ सखी ओ सहेली। जलहि शीत ज्यौ बिलग ना होहि,त्यौहि सखिन पिय प्यारी ना बिछोहि। ज्यौ तापहि अगन संग रहिहै,सखी राधा अंग ही कहिहै। द्युति जो चमक बिलग ना करिहै,सखी ताई ऐसेही एक होहिहै। और जानौ जैसौ चले नासिका सुगन्धि,त्यौ सखी प्रीती कौ ही राह चलिहै। नवाय शीश सखी सहेली प्यारी,जुगल टहल हमहु कौ रखिहै। युगल की सखियाँ प्रियाप्रियतम की छाया के समान है।जिस प्रकार प्रकाश पडने पर देह की छाया बनती है वह छाया सखियाँ व देह युगल है।जैसे छाया देह से विलग नही हो सकती बिना देह छाया का अस्तित्व ही नही उसी प्रकार सखियाँ एवं युगल अभिन्न है। जिस प्रकार दो देह( श्यामाश्याम) हो और उस देह की छाया हो उसी प्रकार सखी या सहेली को जानना चाहिए। जिस प्रकार जल से उसकी शीतलता को अलग नही किया जा सकता( यदि जल को ताप देकर गर्म भी कर दिया जाए तब भी वह पुनः शीतलता को ही प्राप्त हो जाता है अतः शीतलता जल से अभिन्न है)उसी प्रकार प्रियतम प्यारी से सखियो का बिछोह कभी नही होता। जिस प्रकार अग्नि के संग ताप अभिन्न हो रहता है उसी प्रकार सखियो को...

भक्ति-पावनत्व (गीता भक्ति योग)

1. मय्यर्पितात्मनः सभ्य ! निरपेक्षस्य सर्वतः। मयाऽऽत्मना सुखं यत्तत् कुतः स्याद् विषयात्मनाम्।। अर्थः हे साधो उद्धव ! सर्वथा निष्काम बने और मुझे आत्मसमर्पण कर मुझसे आत्मस्वरूप हुए पुरुषों को जो सुख मिलता है, वह विषयों में डूबे मनुष्यों को कहाँ मिल सकेगा? 2. अकिंचनस्य दांतस्य शांतस्य समचेतसः। मया संतुष्टमनसः सर्वाः सुखमया दिशः।। अर्थः पूर्ण अपरिग्रही, इंद्रियजयी, शांत, समदर्शी और मेरी प्राप्ति से संतुष्ट-चित्त मेरे भक्त के लिए दसों दिशाएँ सुखमय होती हैं। 3. न पारमेष्ठयं न महेंद्र-धिष्ण्यं न सार्वभौमं न रसाधिपत्यम्। न योग-सिद्धीर् अपुनर्भवं वा मय्यर्पितात्मेच्छिति मदुविनान्यत्।। अर्थः मुझे आत्मसमर्पण करने वाला मेरा अनन्य भक्त मुझे छोड़कर ब्रह्मलोक, महेंद्रपद, सार्वभौमत्व, पाताल का आधिपत्य, अनेक योग सिद्धियाँ या मोक्ष तक- किसी की भी अभिलाषा नहीं रखता। 4. निरपेक्षं मुनि शांतं निर्वैरं समदर्शनम्। अनुव्रजाम्यहं नित्यं पूयेयेत्यंघ्रि-रेणुभिः।। अर्थः निष्काम, शांत, निर्वैर और समदृष्टि मुनि की चरण-धूलि से मैं पवित्र होऊँ, इसलिए (उनके कदम पर कदम र...

संत कहते हैं:- प्रेम ही परमात्मा है

सदना नाम का एक कसाई था, मांस बेचता था, पर उसकी भगवत भजन में बड़ी निष्ठा थी! एक दिन सदना एक नदी के किनारे से जा रहा था, तभी रास्ते में उसे एक पत्थर पड़ा मिल गया! उसे पत्थर अच्छा लगा, उ...

*रस और रसना*

तावत् जितेंद्रियो न स्यात् विजितान्येन्द्रियः ... सब इंद्रियों पर विजयी हो कर भी रसना नहीँ जीती जा सकती । और रसना जीतने से ही सारी इंद्रिय जीत ली जाती है । अपितु इसे भी शास्त...

*श्यामा जू और बंसी*

श्यामा जू कान्हा का चित्र बनाने लगी हैँ। एक सखी उन्हें चित्रपट ,तूलिका और रंग देकर जाती है। श्यामा जू चित्र बनाना आरम्भ करती हैँ, सर्वप्रथम बंसी का चित्र बनाती हैँ । बनाते ब...

*श्यामा जू और बंसी*

श्यामा जू कान्हा का चित्र बनाने लगी हैँ। एक सखी उन्हें चित्रपट ,तूलिका और रंग देकर जाती है। श्यामा जू चित्र बनाना आरम्भ करती हैँ, सर्वप्रथम बंसी का चित्र बनाती हैँ । बनाते ब...

((((((((  एक चुटकी ज़हर  ))))))))

आरती नामक एक युवती का विवाह हुआ और वह अपने पति और सास के साथ अपने ससुराल में रहने लगी। कुछ ही दिनों बाद आरती को आभास होने लगा कि उसकी सास के साथ पटरी नहीं बैठ रही है। . सास पुरान...

(((((((((( माला के फूल ))))))))))

श्रीआदि शंकरचार्य उनका जीवन वेदों और सनातन धर्म के उत्थान को समर्पित था. हिंदुत्व की रक्षा के लिए आदि शंकराचार्य द्वारा किए योगदान को भुलाया नहीं जा सकता. आज प्रस्तुत है श...