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आत्मा का एक रहस्य है

आत्मा द्वेत नही कर सकती , जैसे मन विचारों का समूह है वह सबको स्वीकार और अस्वीकार कर सकता है । आत्मा विकल्प शुन्य है । आत्मा एक समय पर एक ही का चिंतन कर सकती है । आत्मा अगर सत्य में प्रभु से सम्बन्ध स्वीकार कर चुकी है तो उसे लाख प्रलोभन संसार में मिले वह अपनत्व नहीँ रखेगी जैसे विवाहिता के लिये पीहर के ऐश्वर्य से अपनत्व नहीँ रहता ।
आत्मा को नहीँ स्वीकार करने से हम मन के पीछे उसे घुमाते है ।
मन संसार को सत्य कहता है तो आत्मा संसार से आत्मीयता स्थापित कर लेती है । ऐसी स्थिति में लाख बाहरी प्रयास उसे डिगा नहीँ पाते जब तक आत्मा खुद स्वयं को प्रियतम प्रभु की वस्तु या सेवनीय भावना न स्वीकार करें ।
वस्तुतः हम शास्त्र का अनुमोदन करते रहते है , परन्तु शास्त्र आत्मा द्वारा आत्मा के लिये है ।
आत्मा पुकारे *मेरे राम* तो आत्मा विकल्प शुन्य है , वह जिसे अपना स्वीकार कर ली उसकी अवहेलना नहीँ करेगी । हम भोगियों का मन विचारों का गुच्छा है , मन विकल्प तलाशता है । आत्मा में विकल्प की क्षमता नहीँ अतः हम आत्मा से प्रभु को कभी स्वीकार कर पाएं तो हमारे पास विकल्प नहीँ होगा । जैसे विवाह बाद सती स्त्री को कितना ही अन्य प्रलोभन या सौन्दर्य मिलें वह सहजता से विकल्प शुन्य रहती है , क्योंकि सच्ची संगिनी की आत्मा जिसे स्वीकार कर चुकी उससे सम्बन्ध नही विस्मृत कर सकती ।
हाँ सम्बन्ध मन के स्तर पर है तो मन टिकता नहीँ , मन अवसर तलाशता है ।
संसार से हमारा मन का सम्बन्ध है , और ईश्वर से हमारा आत्मीय सम्बन्ध है । आत्मीय सम्बन्ध अनन्य और अखंड है अतः आत्मा मन के संग कही भी रमण करें वह संतुष्ट नहीँ होगी क्योंकि आत्मा संसार के लिये नहीँ है ।
एक बार आत्मीय सम्बन्ध होते ही प्रभु के अतिरिक्त विकल्प रहता ही नहीँ , विकल्प मन की अवस्था है । आत्मा की नहीँ । और आत्मा का अनुसरण मन को करना है भाव हेतु । ना कि आत्मा मन का अनुसरण करती रहें ।
आत्मा के विषय और आश्रय प्रभु है वह विषयों से सम्बन्ध नहीँ बना पाती जिससे मन विषयों में डूब अतृप्त रह जाता है ।
एक पतिव्रता आत्मा को समझ सकती है ... क्योंकि आत्मा ही पतिव्रता है -- तृषित ।

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