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जनवरी, 2018 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

*श्री प्रिया की पलकें* ... *तृषित*

श्यामल रस घन को समेटते सजल अथाह पिपासा की मधुर उर्मियों को पिए हुए श्री प्रिया के नयन युगल की सहचरियाँ है यह पलकें ... रस घन की लावण्यता और उनके अधर नयन का संयुक्त दर्शन करते ही नयनों की लज्जा को तत्क्षण बता कर पुनः व्यथित पिपासु नयनोँ का पट है यह पलकें ... पिय स्मरण के स्पंदन से सजल नयन के रस झारी को समेटने के लिये गिरती यह नीलिमा समेटी चद्दर जैसे प्रियतम के सौंदर्य को भीतर ही उतारना चाहती हो ... नित्य मिलन की विश्राम भूमि है यह पलकें ... नागर की सौरभ से तिलमिलाए अंग को ना समेट पाने से संचालन खो कर बारबार गिरती और उठती कुछ कह कर भी न कहती श्रीप्रिया के उन्माद की तरँग को किसी परिभाषा से परे करते हुए काँपते हुए सागर की तलाश बन जाती है यह पलकें ... नागर जु की दृष्टि से चोरी करती हुई प्रिया के नैनो में सिमटी नवल अधर रस पिपासिनी की लज्जा जो नैनों के आवरण को भंग करने की यथेष्ठ कामना बन गई हो यह पलकें ... लज्जित नेत्रों में समेटे माधुर्य में नागर उपस्थिति का लाभ उठाने को सजल नयनों की अनसुनी कर उन्हें अनवरत नागर सौरभ पान के लिये उन्मादित करती भाग गई नयनों की एक सखी है यह पलकें ....

मैं क्या दूँ 1

अक्सर ये जिज्ञासा अनुभव में आती है कि श्री भगवान् कैसै प्राप्त होंगें अथवा श्री वृंदावन कुंज निकुंज की प्राप्ति किस प्रकार होगी । क्या वे कुछ देकर मिल जाते हैं या उन्हें पाने के लिये कुछ देना भी पडता है क्या और यदि हां तो मैं क्या दूँ ॥ एक जीव के हृदय में जगी इस जिज्ञासा ने जैसै प्रेम पथ पर , संपूर्ण प्रीति की रीति पर चिंतन हेतु प्रेरित कर दिया ॥ क्या दे सकते हम उन्हें कुछ उनके योग्य है हमारे पास ये सोचने से पूर्व ये समझें कि देना क्यों ॥ इसके कई उत्तर हैं जो प्रेम की विभिन्न स्थितियों के अनुरूप होते हैं ॥ जो अभी किनारे पर बैठा पूछ रहा है कि क्या दूँ उसके लिये उत्तर है कि भरे घट में कभी कोई अन्य रस समा सकता है क्या , नहीं ना तो उन्हें पाने अर्थात् उनके प्रेम को समाने के लिये प्रथम अपने जनम जनम के संस्कारों से भरे घट को रिक्त करना होगा ॥ ज्ञान मार्ग में , योग मार्ग में  ईश्वर प्राप्ति के साधक को स्वयं ही ये करना होता है परंतु जो प्रेम पथ पाना चाहते हैं वहाँ ये दायित्व स्वयं प्रेमास्पद श्री भगवान ले लेते हैं ॥ वे ही आपके घट को रिक्त कर निज प्रेम से भर देते हैं परंतु शर्त यह है कि...

ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन

भगवान विष्णु द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण कर देवतागण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग से करोड़ों योजन ऊपर गोलोकधाम में पहुंचे। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है। गोलोकधाम परमात्मा श्रीकृष्ण के समान ही नित्य है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है। प्रलयकाल में वहां केवल श्रीकृष्ण रहते हैं और सृष्टिकाल में वह गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक के नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। वैकुण्ठ व शिवलोक भी गोलोक की तरह नित्य धाम हैं। इन सबकी स्थिति कृत्रिम विश्व से बाहर है, ठीक उसी तरह जैसे आत्मा, आकाश और दिशाएं कृत्रिम जगत से बाहर तथा नित्य हैं। विरजा नदी से घिरा हुआ शतश्रृंग पर्वत गोलोकधाम का परकोटा है। श...

रूपध्यान

ध्यान करो तुम्हारे सामने श्यामा - श्याम खड़े है । समस्त श्रृंगारों से युक्त है , मुस्करा रहे है , तुम्हारी ही ओर देख रहे है , फिर ध्यान करो वे श्यामसुन्दर तुम्हारे आलिंगन के लिए हाथ उठा रहे है । फिर ध्यान करो वे कुछ कह रहे है । क्या ........ सुनाई नहीं पड़ता , क्योकि तुम्हारे काँन प्राकृत है । अच्छा रोकर , उनसे दिव्य शक्ति माँगो ताकि वे शब्द सुनाई पड़े । अच्छा तो हम बताते है - वे कह रहे है तू केवल मुझे ही अपना सर्वस्व क्यों नहीं मान लेता । सुना - विश्वास करो । पुनः ध्यान करो वे तुम्हें इस शरीर से निकाल कर दिव्य शरीर देकर अपने गोलोक ले जा रहे है । अब देखो गोलोक , यहाँ सब कुछ स्वयं श्रीकृष्ण ही बने हैं । सब जड़ - चेतन स्वयं श्यामसुन्दर ही बने हैं । सूंघो , दिव्य सुगन्ध ! देखो , दिव्य रूप ! अब देखो ! उनके परिकर तुम्हारे स्वागत के लिए आये है । तुम्हें अपनी मंडली में सखा लोग एवं सखी लोग घसीटे लिए जाते है । वे कहते है हमारे मंडल का है । तुम भी तो कुछ कहो , लेकिन तुम तो विभोर हो । क्या कहोगे ? अच्छा , खुसी के मारे नाचो । आँख खोलकर ध्यान करो । आपके सामने किसी स्थान पर वे खड़े है । अब वहा...

*भोगी और (प्रीति) प्रेमानुभव*

चेतना प्रेम से पृथक नहीं मृत्यु तक चेतना प्रेम ही तलाशती , काम नहीं ।अतः काममय जगत प्रेममय होने को लालायित । परन्तु वह काममय ही प्रेम को अनुभूत करते । प्रेम तो विषयों का सर्...

*साधना और प्रेम प्राप्ति*

वास्तव में साधना और प्रेम दो भिन्न स्थितियाँ हैं । साधना मार्ग है और प्रेम महान लक्ष्य ...मधुर तप्त रसामृत-फल । मूल में सन्सार जिसे साधना कहता वह प्रपञ्च ही है जब तक हृदय से उद...

*सखी......मिलित तनु की एकहिं छाया*

श्री राधाराधा जी । सखी ....कितना सुंदर शब्द है न यह , परंतु इसमें निहित भाव इससे भी कहीं अधिक सुंदर है ॥ कौन है सखी,  क्या है सखी ,कैसी है सखी ???? संसार में सखी शब्द से तात्पर्य मित्रत...