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मैं क्या दूँ 1

अक्सर ये जिज्ञासा अनुभव में आती है कि श्री भगवान् कैसै प्राप्त होंगें अथवा श्री वृंदावन कुंज निकुंज की प्राप्ति किस प्रकार होगी । क्या वे कुछ देकर मिल जाते हैं या उन्हें पाने के लिये कुछ देना भी पडता है क्या और यदि हां तो मैं क्या दूँ ॥ एक जीव के हृदय में जगी इस जिज्ञासा ने जैसै प्रेम पथ पर , संपूर्ण प्रीति की रीति पर चिंतन हेतु प्रेरित कर दिया ॥ क्या दे सकते हम उन्हें कुछ उनके योग्य है हमारे पास ये सोचने से पूर्व ये समझें कि देना क्यों ॥ इसके कई उत्तर हैं जो प्रेम की विभिन्न स्थितियों के अनुरूप होते हैं ॥ जो अभी किनारे पर बैठा पूछ रहा है कि क्या दूँ उसके लिये उत्तर है कि भरे घट में कभी कोई अन्य रस समा सकता है क्या , नहीं ना तो उन्हें पाने अर्थात् उनके प्रेम को समाने के लिये प्रथम अपने जनम जनम के संस्कारों से भरे घट को रिक्त करना होगा ॥ ज्ञान मार्ग में , योग मार्ग में  ईश्वर प्राप्ति के साधक को स्वयं ही ये करना होता है परंतु जो प्रेम पथ पाना चाहते हैं वहाँ ये दायित्व स्वयं प्रेमास्पद श्री भगवान ले लेते हैं ॥ वे ही आपके घट को रिक्त कर निज प्रेम से भर देते हैं परंतु शर्त यह है कि आप वास्तव में उन्हें अर्थात् उनके प्रेम को पाने को लालायित हों । वे लेते क्या हैं सर्वस्व ...हाँ  भी और नहीं भी । हाँ इसलिये कि जब तक जीव का अंतःकरण मायिक विषयों में उलझा रहेगा तब तक उसका ममत्व श्री चरणों में केन्द्रित नहीं होगा । ये संपूर्ण सांसारिक उपक्रम जीव के हृदय पर पडे आवरण हैं और प्रेम का निवास स्थल हृदय ही होता है । तो जब तक वह आवरणों से मुक्त नहीं होगा तब तक प्रेम मिलने पर भा उसे अनुभव नहीं कर पायेगा । जिस प्रकार दर्पण ।धूल की परतों से आच्छादित होने पर प्रतिबिंब नहीं दीखता ॥ प्रेम जीव हृदय में पडने वाला श्री भगवान का प्रतिबिंब ही है जो सदा से बना है परंतु अनुभूत नहीं हो पा रहा  आवरण के कारण ॥जैसै ही ये आवरण हटा प्रेम का श्री भगवान का अनुभव होता है । ये सब गूढ़ तत्व चिंतन हो गया । यहाँ इस पर विचार नहीं करना था । तो बात थी कि वे सर्वस्व लेते हैं और नहीं भी तो ये तो सर्वस्व खोने के पश्चात् ही समझ में आता है कि जो गया वो तो सर्वस्व कभी था ही नहीं ॥ परंतु जब तक वे इसे हरते नहीं तब तक अनुभव में आता ही नहीं कि वास्तविक  सर्वस्व है क्या । तब तक तो जीव धन सम्पत्ति परिवारी जन यश मान प्रतिष्ठा लोक वैभव तथा निज देह को ही सर्वस्व जानता है । जबकी वास्तविक सर्वस्व तो वे ही परम प्राण वल्लभ हैं । काँच देकर हीरा मिलता है यहाँ परंतु तब भी संसार कहता कि हमने देखो क्या क्या दे दिया ॥ चलिये ये छोडिए । यहाँ चर्चा क्या दूँ इस पर करनी है हमें । तो ये लिस्ट भी बहुत लम्बी है भई । उन्होंने स्वयं कह दिया है "जननी जनक बंधु सुत दारा तन धन भवन सुहृद परिवार सब के ममता ताग बटोरी मम् पद मनहिं बाँध बरि डोरी "॥ परंतु जानते हैं वास्तव में क्या देना है ..देनी है ममता ॥ ये ममता जिसकी जहाँ जहाँ है वहाँ से हटा उनमें लगानी है बस । यदि आप स्वेच्छा से ऐसा कर सके तो ठीक अन्यथा उन्हें आता ये करना सब और उस समय आप बहुत रुदन करेंगें ॥ तो यदि तैयार हों उस कष्ट के लिये तो ही कूदें इस यज्ञ में ॥जयजय श्रीश्यामाश्याम जी ।।।

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