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दिव्य ग्रन्थ: #प्रेम_रस_सिद्धान्त अध्याय: ४ ¨आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप- आत्म-स्वरूप ¨ पेज: ६५-६६-६७

यदि भौतिक पदार्थों के अनुभव को चैतन्य कहा जाय तो फिर यह आपत्ति आयेगी की वे तो विषय हैं । जैसे अग्नि सर्वदहनसमर्थ है पर स्वयं को नहीं जला सकती, नट अपने कंधे पर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यदि चैतन्य भौतिक धर्म हो तो भौतिक पदार्थ को विषय नहीं बना सकता । जैसे प्रकाश के अभाव में दीपक की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि उपलब्धि दीपक का धर्म नहीं है, वैसे ही आत्मा देह धर्म नहीं है । इसके अतिरिक्त अनुभव द्वारा भी विचार कीजिये । जब आप जाग्रत में रहते हैं तब ऐसा बोलते हैं की मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, आदि । अर्थात् आप मानों इन्द्रियाँ ही हैं ।  किन्तु जब आप स्वप्नावस्था में स्वप्न बनाने लगते हैं तब, यद्यपि शरीरेन्द्रियाँ आपकी खाट पर पड़ी रहती है फिर भी आप स्वप्न में न जाने किस आँख से देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं, इत्यादि । इससे सिद्ध होता है की आप इन्द्रियाँ नहीं है, भले ही मन हों, किन्तु जब आप गहरी नींद, सुषुप्ति अवस्था में सो जाते हैं तो कुछ भी अनुभव नहीं करते- ´न किंचिदहमवेदिषम्´ अर्थात् हमने कुछ नहीं जाना । ऐसा अनुभव सिद्ध करता है की दु:खाभाव-स्वरूप सुख ही की उस अवस्था में...

महाभारत में मांस-भक्षण-निषेध

।।श्रीराम जय राम जय जय राम।। महाभारत में मांस-भक्षण-निषेध ---------------------------------------- महाभारत में कहा गया है– धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः। घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः॥ आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपभोक्ता च खादकाः सर्व एव ते॥            –महा० अनु० ११५।४०, ४९ ’मांस खरीदनेवाला धन से प्राणी की हिंसा करता है, खानेवाला उपभोग से करता है और मारनेवाला मारकर और बाँधकर हिंसा करता है, इस पर तीन तरह से वध होता है । जो मनुष्य मांस लाता है, जो मँगाता है, जो पशु के अंग काटता है, जो खरीदता है, जो बेचता है, जो पकाता है और जो खाता है, वे सभी मांस खानेवाले (घातकी) हैं ।’     अतएव मांस-भक्षण धर्म का हनन करनेवाला होने के कारण सर्वथा महापाप है । धर्म के पालन करनेवाले के लिये हिंसा का त्यागना पहली सीढ़ी है । जिसके हृदय में अहिंसा का भाव नहीं है वहाँ धर्म को स्थान ही कहाँ है? भीष्मपितामह राजा युधिष्ठिर से कहते हैं- मां स भक्षयते यस्माद्भक्षयिष्ये तमप्यहम । एतन्मांसस्य मांसत्...

#जगदगुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज के श्रीमुख से: _*विषय :- निराशा*_

*निराशा हमको आती क्यों है ? उसका क्या कारण है ? उसका इलाज करो । जो प्राप्त वस्तु है उसका अनादर करने से निराशा आती है । सोचो , हमको मानव देह मिला , भारत में जन्म मिला, महापुरुष मिला , तत्वज्ञान मिला उसके द्वारा दिया हुआ , तो सात अरब आदमियों में कितने आदमी हमारे बराबर है जिनको ये सब सौभाग्य प्राप्त है । कितने हजार आदमी है , कितने लाख आदमी है जिनको इतनी भगवत्कृपा मिली है जितनी हमको मिली हैं । तो तुम्हारे दिमाग में ये आएगा कि ऐसे तो बहुत कम लोग है । बार - बार सोचो , कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि कितना सौभाग्यशाली हूँ कितनी भगवत्कृपायें मेरे ऊपर हुई है । देव - दुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी - किसी भाग्यशाली को ही मिलता है , फिर मेरे जैसा सौभाग्यशाली कौन होगा जिसको ऐसा गुरु मिला जो केवल कृपा ही करता है । जब उनका अनुग्रह प्राप्त है तो निराशा की क्या बात है । धिक्कार है मेरे जीवन को । अपनी बुद्धि को उनके श्रीचरणों में डाल दो तो निराशा हट जायेगी । और अगर हट गई और मृत्यु हो गई ,तो अगले जन्म में फिर आपको आशावाद के अनुसार ही फल मिलेगा...