दिव्य ग्रन्थ: #प्रेम_रस_सिद्धान्त अध्याय: ४ ¨आत्म-स्वरूप, संसार का स्वरूप तथा वैराग्य का स्वरूप- आत्म-स्वरूप ¨ पेज: ६५-६६-६७
यदि भौतिक पदार्थों के अनुभव को चैतन्य कहा जाय तो फिर यह आपत्ति आयेगी की वे तो विषय हैं । जैसे अग्नि सर्वदहनसमर्थ है पर स्वयं को नहीं जला सकती, नट अपने कंधे पर नहीं बैठ सकता, वैसे ही यदि चैतन्य भौतिक धर्म हो तो भौतिक पदार्थ को विषय नहीं बना सकता । जैसे प्रकाश के अभाव में दीपक की उपलब्धि नहीं होती क्योंकि उपलब्धि दीपक का धर्म नहीं है, वैसे ही आत्मा देह धर्म नहीं है ।
इसके अतिरिक्त अनुभव द्वारा भी विचार कीजिये । जब आप जाग्रत में रहते हैं तब ऐसा बोलते हैं की मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, आदि । अर्थात् आप मानों इन्द्रियाँ ही हैं । किन्तु जब आप स्वप्नावस्था में स्वप्न बनाने लगते हैं तब, यद्यपि शरीरेन्द्रियाँ आपकी खाट पर पड़ी रहती है फिर भी आप स्वप्न में न जाने किस आँख से देखते हैं, सुनते हैं, सूँघते हैं, इत्यादि । इससे सिद्ध होता है की आप इन्द्रियाँ नहीं है, भले ही मन हों, किन्तु जब आप गहरी नींद, सुषुप्ति अवस्था में सो जाते हैं तो कुछ भी अनुभव नहीं करते- ´न किंचिदहमवेदिषम्´ अर्थात् हमने कुछ नहीं जाना । ऐसा अनुभव सिद्ध करता है की दु:खाभाव-स्वरूप सुख ही की उस अवस्था में अनुभूति होती है जिससे वह कहता है- ´सुखमहस्वाप्सम्´ अर्थात् मैं सुख से सोया । भावार्थ यह की उस अवस्था में अहमर्थ का अनुभव नहीं होता । क्योंकि अहमर्थ सदा अच्छायुक्त होता है और सुषुप्ति में इच्छा का अभाव अनुभव में होता है ।
सुषुप्ति में अविद्या-युक्त चैतन्य अज्ञान का अनुभवकर्ता होता है एवं अन्त:करण-युक्त-चैतन्य ´स्मर्ता´ जाग्रत में होता है ।
भावार्थ यह कि गहरी नींद में मन का भी अभाव रहता है अतएव आप मन आदि भी नहीं है । साथ ही यह व्यवहार में भी बोलते हैं एवं अनुभव करते हैं कि हमारा मन है, हमारी आँख हैं, हमारे कान हैं, हमारा शरीर है । तब फिर जो हमारा है, वह ´मैं´ नहीं हो सकता । ´मैं´ तो सदा ´मेरे´ से पृथक् ही होगा । यदि तर्कयुक्त ´मैं´ को पूछा जाय तो इतना ही उत्तर पर्याप्त है कि जो मेरा न हो, वही ´मैं´ है ।
ताप्पर्य यह कि ´मैं´ प्राकृत पदार्थ नहीं । शेष, अन्त:करण एवं इन्द्रियादि, सब प्राकृत हैं । ´मैं´ आप्त वाक्यों के अनुसार-
चिन्मात्रं श्री हरेरंशं सुक्ष्ममक्षरमव्ययम् ।
कृष्णाधीनमिती प्राहुर्जीवं ज्ञानगुणाश्रयम् ।। (वेद)
अर्थात् में ईश्वर का अंश हूँ, जिसे गीता में भी कहा है-
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन: । (गीता १५-७)
ईश्वर अंश जीव अविनाशी । (रामायण)
अब यह सिद्ध हो गया कि ´मैं´ इन्द्रिय, मन आदि नहीं अपितु ईश्वरीय अनादिकालीन नित्य अंश हूँ । अतएव हमारा सुख ईश्वरीय होगा । संसार में हमारा सुख तर्क एवं अनुभव दोनों के विरुद्ध है । यही कारण है कि यद्यपि मन आदि अनन्त युगों से प्रतिक्षण मुझे यह धोखा देना चाहते हैं कि अब की बार मुझे अमुक वस्तु से सुख मिल जायगा, वह वस्तु मिलती भी है, परन्तु सुख नहीं मिलता । यदि हम मन बुद्धि के सजातीय होते तो उसके बहकाने में आ जाते किन्तु मैं दिव्य तत्त्व हूँ अतएव जब तक नित्यानन्द न प्राप्त हो जायगा तब तक महत्तक मायिक पदार्थों के पाने पर भी ´मैं´ आनन्दमय नहीं हो सकता ।
अब आप संसार के सूक्ष्म एवं स्थूल रूप पर विस्तृत मीमांसा करें, क्योंकि यहाँ पर ही मन अटका हुआ है एवं बुद्धि का भी यह निश्चय सा बना हुआ है कि संसार में सुख अवश्य है एवं अवश्य मिलेगा तभी तो हम तदर्थ प्रतिक्षण प्रयत्नशील हैं । ….क्रमश: ........ ......
---------#जगद्गुरु_श्री_कृपालु_जी_महाराज-----------
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राधे राधे ।