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गुरु

अन्धकार निरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते।। ( द्वयोपनिषद् ४ मंत्र,अद्वयतारकोपनिषद् १६ वाँ मंत्र) अर्थात गुरु से बड़ा कोई तत्व नहीं होता, भगवान वगैरह नहीं। क्यों ? बतायेंगे, बतायेंगे, धैर्य रखो। गुरुरेव परं ब्रह्म। ( द्वयोपनिषद् ५,अद्वयतारकोपनिषद्  १७) अरे वही ब्रह्म है, भगवान है गुरु ही। उधर से फिर आये। गुरुरेव परो धर्मो गुरुरेव परा गति: ( शाट्यायनी उप. ३६ वाँ मंत्र ) और इससे बड़ा कोई धारण करने वाला तत्त्व नही होता। जिसने गुरु को धारण कर लिया, उसको भगवान की भी आवश्यकता नहीं। भगवान तो पागल हो जाते हैं, जो गुरु का भक्त होता है उसके प्रति बिना उपासना के। - जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज

रूपध्यान

ध्यान करो तुम्हारे सामने श्यामा - श्याम खड़े है । समस्त श्रृंगारों से युक्त है , मुस्करा रहे है , तुम्हारी ही ओर देख रहे है , फिर ध्यान करो वे श्यामसुन्दर तुम्हारे आलिंगन के लिए हाथ उठा रहे है । फिर ध्यान करो वे कुछ कह रहे है । क्या ........ सुनाई नहीं पड़ता , क्योकि तुम्हारे काँन प्राकृत है । अच्छा रोकर , उनसे दिव्य शक्ति माँगो ताकि वे शब्द सुनाई पड़े । अच्छा तो हम बताते है - वे कह रहे है तू केवल मुझे ही अपना सर्वस्व क्यों नहीं मान लेता । सुना - विश्वास करो । पुनः ध्यान करो वे तुम्हें इस शरीर से निकाल कर दिव्य शरीर देकर अपने गोलोक ले जा रहे है । अब देखो गोलोक , यहाँ सब कुछ स्वयं श्रीकृष्ण ही बने हैं । सब जड़ - चेतन स्वयं श्यामसुन्दर ही बने हैं । सूंघो , दिव्य सुगन्ध ! देखो , दिव्य रूप ! अब देखो ! उनके परिकर तुम्हारे स्वागत के लिए आये है । तुम्हें अपनी मंडली में सखा लोग एवं सखी लोग घसीटे लिए जाते है । वे कहते है हमारे मंडल का है । तुम भी तो कुछ कहो , लेकिन तुम तो विभोर हो । क्या कहोगे ? अच्छा , खुसी के मारे नाचो । आँख खोलकर ध्यान करो । आपके सामने किसी स्थान पर व...

साधक को चार बातें अवश्य जाननी चाहिए ---

1 - अपना स्वरूप :-- मैं ईश्वर का अंश हूँ, देहादि नहीं हूँ। 2 - ध्येय का स्वरूप :- मेरे इष्टदेव ( श्री राधा कृष्ण ) सच्चिदानन्दस्वरूप हैं। 3 - साधन का फल :-- इष्टदेव के प्रति आत्यंतिक अनुराग ही साधन का प्रधान फल है। 4 - साधन का विघ्न :- इष्टदेव के सिवा और सम्पूर्ण प्रपञ्च ही विघ्न है। संसार में सुख नहीं है। यदि कोई कहीं सुखी दिखाई भी पड़ता है तो वह भी भ्रान्तिमात्र है, क्योंकि सांसारिक सुख अनित्य, सीमित एवं परिणामी होता है। अतः साधक को सांसारिक सुखों का त्याग करना चाहिए। ~~~ जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज ।