अन्धकार निरोधित्वाद् गुरुरित्यभिधीयते।।
( द्वयोपनिषद् ४ मंत्र,अद्वयतारकोपनिषद् १६ वाँ मंत्र)
अर्थात गुरु से बड़ा कोई तत्व नहीं होता, भगवान वगैरह नहीं। क्यों ? बतायेंगे, बतायेंगे, धैर्य रखो।
गुरुरेव परं ब्रह्म। ( द्वयोपनिषद् ५,अद्वयतारकोपनिषद् १७)
अरे वही ब्रह्म है, भगवान है गुरु ही। उधर से फिर आये।
गुरुरेव परो धर्मो गुरुरेव परा गति:
( शाट्यायनी उप. ३६ वाँ मंत्र )
और इससे बड़ा कोई धारण करने वाला तत्त्व नही होता। जिसने गुरु को धारण कर लिया, उसको भगवान की भी आवश्यकता नहीं। भगवान तो पागल हो जाते हैं, जो गुरु का भक्त होता है उसके प्रति बिना उपासना के।
- जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु जी महाराज
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राधे राधे ।