जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज एवं/अथवा श्रीराधा-कृष्ण के समस्त सत्संगी, प्रेमी, श्रद्धालु साधकों/भक्तजनों को सप्रेम राधे राधे
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज
एवं/अथवा
श्रीराधा-कृष्ण के समस्त सत्संगी, प्रेमी, श्रद्धालु साधकों/भक्तजनों को
सप्रेम राधे राधे
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
भगवान् की भक्ति करके भगवद्प्राप्ति करने के लिए कलियुग को सर्वश्रेष्ठ युग बताया गया है!
क्यों?
क्योंकि एक तो कलियुग में अन्य कोई साधन करना सम्भव ही नहीं,
इसलिए किसी भी साधन का अपेक्षित फल नहीं मिल पाता।
दूसरे, कलियुग में भगवान् का नाम और उनके गुणों का कीर्तन मात्र करने से ही सर्वोच्च फल की प्राप्ति सम्भव है। अतएव, अन्य कोई साधन करने की आवश्यकता भी नहीं है।
सौभाग्य से हम लोग भी कलियुग में मानव देह प्राप्त करके भारत जैसी पुण्य भूमि में जन्में हैं।
हमें केवल राम का गुणगान करना है
और इस चौरासी लाख प्रकार की भयानक अँधेरी कोठरियों वाले विचित्र पागलखाने से मुक्त होकर
अपने उस नित्य घर में पहुँचना है,
जहाँ अनन्त काल से सर्वतः आनन्द ही आनन्द है,
जहाँ अनन्त काल के लिए निरन्तर आनन्द की ऐसी रसधार बहती है, जो नित्य नवायमान है,
जहाँ का आनन्द प्रतिक्षण वर्द्धमान बताया गया है।
और सर्वोपरि, जहाँ हमारे अपने सनातन माता-पिता हमारी चिर प्रतीक्षा में अपने अंश से मिलने के लिए परम व्याकुल हैं। हमारी सदा वत्सला भोली-भाली माँ श्रीराधा रानी हमारे लिए अपनी भुजाएँ फैलाये हुए खड़ीं हैं,
तभी तो श्री महाराज जी ने यह लिखा—
दोउ कर-कमल पसारि निहारति, तोहिँ वृषभानुदुलार।
राम ही आनन्द हैं।
राम के सिवाय जो कुछ भी मिलेगा, वह कुछ भी हो, आनन्द नहीं हो सकता।
क्योंकि वेद के अनुसार, आनन्द ब्रह्म है और ब्रह्म राम है। इतना ही नहीं, राम का अंश होने के कारण राम से मिले बिना हमारा यह आनन्द का अन्वेषण रुकेगा भी नहीं। अतएव, राम तक पहुँचना जीव की आवश्यकता ही नहीं, वरन् विवशता है।
यद्यपि राम सर्वत्र व्यापक हैं, तथापि आनन्द के मूर्तिमान स्वरूप राम के वास्तविक रसास्वादन के लिए संसार से निर्लिप्त एवं बढ़िया ढंग से गढ़ा हुआ
रसिक मन होना चाहिये।
त्रेता के राम ने शृंगवेरपुर में वनवासियों के बीच डेरा डाला और उनके मनों को आकर्षित करके आगे बढ़ गये,
देश-काल की परिस्थिति के कारण उन भोले भावुक जनों का मन गढ़ने का उनके पास समुचित अवकाश न था।
रामावतार में श्यामसुंदर ने विविध लीलाएँ करके
एक ओर बुध जनों को सुखी किया तो दूसरी ओर जड़ बुद्धि वालों को मोहित किया, भ्रमित किया।
राम ने ग्यारह हज़ार वर्ष राज्य किया, लेकिन इतनी लम्बी कार्यावधि में केवल एक छोटा-सा लेक्चर दिया,
ऐसे में हमारे जैसे जड़ मति भला उनको और उनकी विचित्र माया को कितना समझ पाते?
उसी कमी को पूरा करने हेतु कलिकाल में अवतरित हुये 'कृपालु' राम ने सीधे-सादे, भोले ग्रामवासियों को अपना संगी साथी बनाया
और त्रेता युग की उसी दिव्य भूमि को,
प्राचीन तीर्थ शृंगवेरपुर को ही, मनगढ़ बनाकर
भावुक जनों का मन गढ़ने के लिए अपनी नई लीलास्थली के रूप में चुना।
उनके अवतार का कारण क्या?
केवल अकारण करुणा का उनका सहज स्वभाव।
और अवतार का प्रकट लक्ष्य क्या?
केवल एक। जीवों को अलौकिक आनन्द प्रदान करना।
त्रेता के राम और कलियुग के 'कृपालु' राम के बीच द्वापर के अंत में श्रीराधा-कृष्ण ने जो प्रेम रस की वर्षा की,
ब्रज भूमि में जो दिव्य प्रेमानन्द बरसाया
और उसके चरमोत्कर्ष के रूप में अपने अधिकारी जनों को महारास का जो सर्वोच्च आनन्द प्रदान किया,
उसी लक्ष्य से, सबको दिव्य रास रस का आनन्द प्रदान करने का कृपालु स्वभाव लिए महारास की मनभावन चाँदनी में, शरद पूर्णिमा की अर्द्ध रात्रि में,
श्री राम कृपालु का अवतरण हुआ।
यही राम कृपालु बाद में काशी के मूर्धन्य विद्वानों को अपने अलौकिक ज्ञान से स्तंभित कर
उनसे जगद्गुरूत्तम की उपाधि प्राप्त करके
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज के रूप में जाने गए।
आदि जगद्गुरु स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण अपनी ह्लादिनी शक्ति, परम प्रेम की साकार मूर्ति, श्रीराधा रानी को अंगीकार कर भक्ति धाम मनगढ़ में अवतरित हुये
और इतने कृपालु बनकर आये कि इन्होंनें द्वापर में अपना जो दिव्य ब्रज रस युगों-युगों से प्रतीक्षारत
अधिकारी जनों को लुटाया था,
कलियुग में भक्तियोग रसावतार
जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज बनकर उन्होंने
वही ब्रज रस अनधिकारियों पर उड़ेलने के लिए
अपने जीवन को समर्पित कर दिन-रात एक कर दिया।
जरा तुलना कीजिये,
एक ओर द्वापर के राम ने ग्यारह हज़ार वर्षों में केवल एक लेक्चर दिया
तथा दूसरी ओर कलिकाल में
'कृपालु' राम के मुखारविंद से अनन्तानन्त व्याख्यान 92 वर्ष की आयु तक अहर्निश प्रकट होते रहे।
श्री महाराज जी ने केवल 'मैं' कौन? 'मेरा' कौन?
का विषय समझाने के लिए ही एक-एक घंटे के 104 लेक्चर की पूरी शृंखला हम जैसे मन्दबुद्धि जीवों के समक्ष परोस डाली
और इनमें भर दिया वेदों शास्त्रों का समस्त सार
और सकल सिद्धांतों का सुंदर समन्वय।
और वह भी वेद से लेकर रामायण तक के प्रमाणों के साथ और अंत में गधे की अक्ल वालों के लिए समूचे सार के सार का भी सार निकलकर सामने रख दिया।
वस्तुतः, राम 'कृपालु' के अवतरण के बाद ही
गधे की अक्ल वालों के लिए भगवान् का जगद्गुरु
और कृपालु रूप चरितार्थ हो पाया है।
प्रश्न उठता है कि यदि 'कृपालु' का अवतार उन जीवों को भी अपना दिव्य रस प्रदान करने के लिए हुआ,
जो अधिकारी नहीं हैं, तो यह मन को गढ़ने की शर्त किसलिए लगाई गयी है?
वास्तव में, यह कोई शर्त नहीं है, बल्कि मूलभूत आवश्यकता है, मजबूरी है।
यह इसलिए आवश्यक है, क्योंकि अभी हमारे मन में संसार के विषयों का विष घुसा हुआ है,
तो इस मायिक कलुषित मन में आनन्द रस के आस्वादन के लिए अवकाश ही कहाँ हैं?
जिस मायिक मन के पात्र में संसारी विषयों का तेजाब और विष भरा हो,
उसमें दिव्यामृत कैसे और कहाँ भरा जाए?
अतः सच्चिदानंदघन श्यामसुंदर 'कृपालु' राम के वास्तविक रसास्वादन के लिए संसार से निर्लिप्त
एवं बढ़िया ढंग से गढ़ा हुआ रसिक मन होना अनिवार्य है।
चारों युगों में हमारे प्यारे श्यामसुंदर ने कितने मनमोहक नाम, रूप, लीला, गुण, धाम लुटाये हैं,
ताकि हम उनका अविरल गुणगान कर सकें।
भगवान् ने सतयुग में प्रह्लाद के शरणागत होने पर नरसिंह बनकर सगुण साकार रूप में अपने सर्वव्यापक होने का जीवन्त प्रमाण दे डाला।
त्रेता में राम बनकर आदर्श मानव जीवन का निर्वहन करते हुए विविध मनोरम लीलायें कीं।
द्वापर में तो हमारे नटखट नटवर नागर ने महारास से महाभारत तक वैविध्यपूर्ण मनोहारी लीलाओं का अम्बार लगा दिया
तथा जो अधिकारी थे, उनको अपने अधिकारित्व की कक्षा के अनुरूप भिन्न-भिन्न प्रकार का रस प्रदान किया।
भगवान् की इच्छा के अनुसार श्री नारद जी इन तीनों पूर्व युगों की दिव्य लीलाओं को जीव कल्याणार्थ उपयोग में लाने के लिए उत्सुक थे,
साथ ही उन्होंने भक्ति महारानी को
'त्वां स्थापयिष्यामि गेहे गेहे जने जने' कहकर
यह आश्वासन दे दिया था कि कलियुग में घर-घर में,
जन-जन में भक्ति (श्रीराधा) का संचार होगा।
श्री वेद व्यास जी ने भगवान् की लीलाओं को सारांश रूप में लिपिबद्ध करके पुराणों के रूप में
जीव जगत के सम्मुख परोसा,
ताकि सदा से मायाबद्ध जीव भगवान् की उन लीला-कथाओं में आनन्द का आभास पाकर ललचा उठें,
ताकि उसी दिव्य रस को पाने के लिए जीव अपने आर्त्त अंतःकरण से करुणासागर भगवान् को पुकारें।
ऐसी अद्भुत पृष्ठभूमि तैयार होने पर अब स्वयं भगवान् श्रीराधा-कृष्ण को रंगमंच पर प्रकट होना ही था।
मानो अपने परम भक्त नारद जी के आग्रह पर स्वयं भक्ति महारानी श्रीराधा ही अपने आराध्य एवं आराधक श्रीकृष्ण को अंगीकार कर 'कृपालु' बनकर
राम की पूर्व लीलास्थली शृंगवेरपुर के नवीन संस्करण मनगढ़ में पतित और संसारासक्त जीवों का मन गढ़ने के लिए अवतरित हो गयीं।
चारों युगों की अनन्त मधुर लीलाओं का जो अपार भण्डार आज हमें उपलब्ध है, वह अनायास व अकारण नहीं है।
श्री कृपालु महाप्रभु के लीला संवरण के पश्चात् यदि आज हम आकलन करें, तो केवल उन्हीं के अनन्त गुणों से युक्त अनेकानेक लीलाएँ हमारे सामने हैं
और इनके गुणगान से ही हमारे सबके कल्याण के मार्ग प्रशस्त होते चले जाएँगे।
श्री महाराज जी ने जगद्गुरूत्तम की उपाधि प्राप्त करने से लेकर अपने अनन्त श्री विभूषित स्वरूप के मध्य में कितने अनूठे समन्वय किये हैं,
यह तो हम सभी, जो उनके सम्पर्क में आये हैं,
अपने-अपने अधिकारित्व के अनुरूप थोड़ा-बहुत जानते ही हैं।
अब, यदि श्री कृपालु हरि का गुणगान ही हमारी साधना का मूल मन्त्र बन जाए, तो यही सिद्धि है,
जो हमें स्वतः मिल जायेगी तथा श्री तुलसीदास जी का यह वक्तव्य हमारे इसी जीवन में चरितार्थ हो जायेगा, इसमें संदेह नहीं—
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास॥
कृपालु हरि का गुणगान करते हुये उनके सिद्धांत का प्रचार करने में हमें आज के वैज्ञानिक साधन भी अपने प्रचार कार्य में निश्चित ही अपना बहुमूल्य योगदान दे रहे हैं और देते रहेंगे।
राधे राधे
(शेष अगले भाग में...)
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राधे राधे ।