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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 113से आगे .....
चौपाई :
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ। कछु दुख तुम्हहि न ब्यापिहिस काऊ।।
राम रहस्य ललित बिधि नाना। गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।।
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ। नित नव नेह राम पद होऊ।।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं। हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नाहीं।।
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा। ब्रह्मगिरा भइ गगन गँभीरा।।
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी। यह मम भगत कर्म मन बानी।।
सुनि नभगिरा हरष मोहि भयऊ। प्रेम मगन सब संसय गयऊ।।
करि बिनती मुनि आयसु पाई। पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।।
हरष सहित एहिं आश्रम आयउँ। प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ।।
इहाँ बसत मोहि सुनु खग ईसा। बीते कलप सात अरु बीसा।।
करउँ सदा रघुपति गुन गाना। सादर सुनहिं बिहंग सुजाना।।
जब जब अवधपुरी रघुबीरा। धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।।
तब तब जाइ राम पुर रहउँ। सिसुलीला बिलोकि सुख लहऊँ।।
पुनि उर राखि राम सिसुरूपा। निज आश्रम आवउँ खगभूपा।।
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई। काग देह जेहिं कारन पाई।।
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी। राम भगति महिमा अति भारी।।
भावार्थ: काल, कर्म, गुण दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुःख तुमको कभी नहीं व्यापेगा। अनेकों प्रकार से सुन्दर श्रीरामजीके रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण) जो इतिहास और पुराणोंमें गुप्त और प्रकट हैं (वर्णित और लक्षित हैं)।।तुम उन सबको भी बिनाही परिश्रम जान जाओगे। श्रीरामजीके चरणोंमें तुम्हारा नित्य नया प्रेम हो। अपने मनमें तुम जो कुछ इच्छा करोगे, श्रीहरिकी कृपा से उसकी पूर्ति कुछ भी दुर्लभ नहीं होगी।।हे धीरबुद्धि गरुड़जी ! सुनिये, मुनिका आशीर्वाद सुनकर आकाशमें गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि तुम्हारा वचन ऐसा ही (सत्य) हो। यह कर्म, मन और वचन से मेरा भक्त है।।आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब सन्देह जाता रहा। तदनन्तर मुनिकी विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरणकमलों में बार-बार सिर नवाकर-।।मैं हर्षिसहित इस आश्रममें आया। प्रभु श्रीरामजीकी कृपासे मैंने दुर्लभ वर पा लिया। हे पक्षिराज ! मुझे यहाँ निवास करते सत्ताईस कल्प बीत गये।।मैं यहाँ सदा श्रीरघुनाथजीके गुणोंका गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे आदरपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरीमें जब-जब श्रीरघुवीर भक्तों के [हितके] लिये मनुष्यशरीर धारण करते हैं,।।तब-तब मैं जाकर श्रीरामजी की नगरी में रहता हूँ और प्रभु की शिशु लीला देखकर सुख प्राप्त करता हूँ। फिर हे पक्षिराज ! श्रीरामजीके शिशुरूपको हृदय में रखकर मैं अपने आश्रममें आ जाता हूँ।।जिस कारण से मैंने कौए की देह पायी, वह सारी कथा आपको सुना दी। हे तात ! मैंने आपके सब प्रश्नों के उत्तर कहे। अहा ! राभक्तिकी बड़ी भारी महिमा है।।
दोहा :
ताते यह प्रन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।।114क।।
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।114ख।।
मुझे अपना यह काक शरीर इसिलिये प्रिय है कि इसमें मुझे श्रीरामजी के चरणों का प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाये और मेरे सब सन्देह जाते रहे (दूर हुए) ।। मैं हठ करके भक्तिपक्ष पर अड़ रहा, जिससे महिर्ष लोमश ने मुझे शाप दिया। परंतु उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुलर्भ है, वह वरदान मैंने पाया। भजन का प्रताप तो देखिये !।।114(क -ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 114, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।