राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : नौवाँ दिन - 17 सितंबर
(9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : 'भक्तिमार्ग की अनिवार्य शर्तें'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने दार्शनिक उदबोधन की श्रृंखला में नौवें दिन भक्तिमार्ग के निरुपण को और गहराई दी. उन्होंने प्रमुख रुप में भक्तिमार्ग की शर्तों का निरुपण किया. भक्तिमार्ग में यद्यपि सभी अधिकारी हैं किन्तु इस मार्ग की कुछ शर्ते हैं, जिनको पूरा किये बिना इस राह पर गन्तव्य तक नहीं पहुँचा जा सकता है. श्रीपाद रुप गोस्वामी जी द्वारा विरचित 'भक्तिरसामृतसिन्धु' नामक ग्रन्थ के द्वारा आइये जानें कि सुश्री देवी जी ने क्या व्याख्या की है.
भक्ति की परिभाषा कल आपको समझाई गई थी कि यह भगवान् की सबसे पर्सनल पॉवर है. इस भक्ति के अंडर में भगवान् सदा रहते हैं. भक्तिमार्ग ही जीव को अनंतकाल के लिए आत्यंतिक दुःख निवृत्ति और अनन्तानन्त परमानंद की प्राप्ति कराती है. जो चतुर जीव होते हैं वे भगवान् से एकमात्र भक्ति के सिवा कुछ नहीं चाहते. काकभुशुण्डि जी के बारे में बताया गया कि भगवान् राम द्वारा प्रसन्न होकर सर्वस्व देने के आग्रह पर भी उन्होंने कहा कि बाकी सब चीजें, ये ऋद्धि-सिद्धि और मुक्ति वगैरह अपने लायक जीवों को दीजियेगा, हमें तो एकमात्र आपके श्रीचरणों की प्रीति प्रदान कीजिये, जिसकी महिमा का बखान वेदादिक श्रुतियाँ करती हैं और जो योगियों, मुनियों के लिए भी दुर्लभ है.
यानी वे जीव जो मुक्ति के लालच का भी त्याग कर देते हैं, वे सबसे चतुर हैं. इतिहास में शुकदेव आदि परमहंस हुए हैं जिन्होंने ब्रम्हानंद का भी बरबस त्याग कर दिया. वस्तुतः यह त्याग करना नहीं पड़ता, भक्ति या प्रेम की महिमा सुनकर, देखकर ही मन बरबस उस ओर हठात् प्रवृत्त हो जाता है. विदेह जनक जी भी जब श्रीराम को देखते हैं तो उनसे उनकी रूपमाधुरी देखकर रहा नहीं जाता और वे प्रेम से भर उठते हैं,
इनहिं विलोकत अति अनुरागा । बरबस ब्रम्ह सुखहिं मन त्यागा ।।
तो वास्तविक प्रेमी भक्त कभी भी अन्य मार्गों अथवा प्रलोभनों में नहीं फँसता. एकमात्र भक्ति के आश्रय में ही रहता है.
अस विचारि जे परम सयाने । मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने ।।
कल एक बात और कही गई थी कि यह भक्ति प्राप्त करने के लिए हमको श्रोत्रिय-ब्रम्हनिष्ठ महापुरुष के सान्निध्य में रहकर अनन्य और निष्काम भाव से एक और भक्ति करनी होगी, इसका नाम है साधना भक्ति. इस साधना से हमारा अंतःकरण शुद्ध होगा. वस्तुतः भगवान् किसी साधना से कभी भी नहीं मिलेंगे. दो तरह की बातें आती हैं. पहली कि भगवान् को प्राप्त करने के लिए साधना करनी होगी और दूसरा कि भगवान् किसी भी साधन से अप्राप्य हैं. दोनों ही बातें सही हैं.
साधना इसलिए करनी है क्योंकि हमारा गन्दा अंतःकरण जो कि मायिक है, वह धुलता जाएगा. दिव्यप्रेम के शुद्ध अंतःकरण चाहिए. वह साधना से होगा. इसलिए प्रत्येक महापुरुष अपने शरणागत जीव से साधना करवाता है. साधना द्वारा अंतःकरण की पूर्ण शुद्धि पर ही गुरु कृपा करके उस जीव के अंतःकरण में भगवान् के दिव्यप्रेम का दान करता है. तो वह दिव्यप्रेम गुरु की कृपा से प्राप्त होता है. इसलिए भगवान् ने यहाँ आज्ञा दी है कि जीव को गुरु और भगवान् को एक समान मानकर भक्ति करनी है, तभी वह जीव भक्ति को प्राप्त कर सकता है. एक समान, न कोई छोटा और न कोई बड़ा. दूसरे शब्दों में गुरु को ही भगवान् मानकर भक्ति करनी है. भगवान् ही गुरु रुप में प्राप्त होते हैं.
'यस्य देवे पराभक्ति यथा देवे तथा गुरौ'
अब आगे चलते हैं. भक्तिमार्ग में जो प्रवेश करते हैं उनके लिए कुछ शर्ते बतलाई गई हैं. श्रीपाद रुप गोस्वामी जी ने अपने विशुद्धभक्तिपरक ग्रन्थ 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में उन तीन शर्तों का उल्लेख किया है -
'अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।।'
(भक्तिरसामृतसिन्धु)
भक्ति के आचार्य श्री नारद जी ने भी अपने 'नारद भक्ति सूत्र' में यही कहा -
'गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानं'. (नारद भक्ति सूत्र - 54)
भागवत में भी इन्हीं शर्तों का उल्लेख है,
'अहैतुक्यव्यवहिता या भक्तिः पुरुषोत्तमे'. (भाग 3-29-12)
तो ये क्या शर्ते हैं आइये इसका थोडा विस्तार पूर्वक निरुपण समझें.
(1) सबसे पहला है - अन्याभिलाषिताशून्यं. अर्थात् सब प्रकार की अन्य इच्छाओं यानी कामनाओं को सर्वथा अपने हृदय से बाहर निकाल फेंकना. उससे शून्य हो जाना. कामना, यह कामना जो है संसार की, वह इतनी खतरनाक है कि आजपर्यंत इसी कामना ने जीव को यानी हमको ईश्वर से दूर किये हुए है. इस कामना की जड़ है संसार के प्रति हमारी सुखबुद्धि. संसार में सुख है, संसार प्राप्त करके मैं सुखी होऊँगा, यह भ्रामक विश्वास ही सांसारिक कामना की जननी है. संसार के पीछे ही पागल है आज का मनुष्य. संसार की कामना से उसका दुःख और बढ़ता ही जाता है, कभी कम नहीं होता, ख़त्म होने की बात तो दूर है. कामना का स्वभाव ही है कि यहाँ सदा बढ़ती ही जाती है. जैसे आग में कोई घी डाले. मुण्डकोपनिषद् में कहा गया कि जीव अपने हृदय से इस कामना को निकाल दे तो वह भगवान् के बराबर हो जाए. भागवत में भी इसका उल्लेख है,
'विमुञ्चति यदा कामान्मानवो मनसि स्थितान्'
(भागवत 7-10-9)
आगे भागवत कह रही है कि वह कामनारहित मनुष्य,
'भगवत्त्वाय कल्पते'. (भागवत 7-10-9)
7 वें स्कंध के 82 वें अध्याय में भी कहा -
'अमृत्त्वाय कल्पते'. (भागवत 7-82-45)
भगवान् के बराबर हो जाता है वह जीव. भगवान् की कोई कामना नहीं रहती है.
एक प्रश्न हो सकता है कि कामना तो भक्त की भी होती है, तो क्या वह भी उतनी ही खतरनाक है? इसका उत्तर है नहीं. दो प्रकार की कामनायें खतरनाक है. इनको चुड़ैलें कहा है भक्तों ने. 'भक्तिरसामृतसिन्धु' ग्रन्थ में श्रीरूप गोस्वामी जी लिखते हैं -
'भुक्तिमुक्तिस्पृहा यावत् पिशाची हृदि वर्तते ।
तावद्-भक्तिसुखस्यान् कथमभ्युदयो भवेत् ।।'
(भक्तिरसामृतसिन्धु)
अर्थात् भुक्ति और मुक्ति रूपी ये दो पिशाचिनियाँ जब तक जीव के हृदय में रहेंगी तब तक उस जीव के हृदय में भक्ति महादेवी का प्राकट्य असंभव है. ये भुक्ति की कामना का क्या अर्थ है? भुक्ति यानी संसार की कामना. हमारा तो अनादिकाल से यही स्वभाव या आदत रही है कि हम कभी भी भुक्ति की कामना से बाज नहीं आये. हमारा स्वयं का अनुभव जबकि यह कहता है कि संसार में सुख नहीं है. कामना से संसार प्राप्त हो गया, प्रयत्न से, लेकिन प्राप्त होने के बाद भी हमको सुख मिला नहीं. उल्टा उससे अशांति अधिक आ गई. एक दिन वह भी दुःख में ही बदल जाता है, प्रत्यक्ष अनुभव है हमारा. फिर भी दिन रात यही भुक्ति, भुक्ति, भुक्ति की कामनायें. संसार से पेट नहीं भरता हमारा. भगवान् के कानून के विरुद्ध जाते हैं हम लोग.
हमारे देश में जो अधिकाँश भक्ति होती है वो किसलिए? सबको किसी न किसी की कामना है. किसी को कुछ चाहिए किसी को कुछ. बेटा बीमार है, सीरियस है, घर में पंडित बुलवाकर महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करवाते हैं कि बेटा ठीक हो जाय. उत्तरा 16 वर्ष की उम्र में विधवा हो गई, अभिमन्यु मारा गया. न श्रीकृष्ण ने बचाया, न वेदव्यास और न ही अर्जुन बचा सके. प्रारब्ध था. श्रीराम जी ने अपने पिता दशरथ जी को नहीं बचाया, प्रारब्ध था. तो जब भगवान् स्वयं इन महापुरुषों के लिए प्रारब्ध को नहीं काटते तो हम अपने लिए कैसे आशा कर लेते हैं कि महामृत्युंजय मन्त्र के उच्चारण मात्र से मृत्यु टल जायेगी.
भगवान् प्रारब्ध से अधिक किसी को कुछ नहीं देते. और फिर हम किस अधिकार से माँगते हैं भगवान् से. कोई रिश्ता है हमारा उनसे? हमारे रिश्तेदार तो ये संसार वाले हैं जिनकी हम चाकरी करते हैं, गुलामी करते हैं. जब इसकी हानि होने लगती है तब हमको भगवान् की याद आती है. भगवान् से कैसा रिश्ता है? घर से निकले तो अगर रास्ते में मंदिर आ जाए तो भगवान् का तो हाथ जोड़ लेते हैं बस. फिर कोई मतलब नहीं, अपना संसार में मस्त हैं. भगवान् से संसार माँगना कैसा है? जैसे कोई मिठाई की दूकान पर जाकर कहे कि हमें चप्पल चाहिए. भगवान् अनन्त आनंद के सागर हैं, उनसे उनका प्रेम माँगना छोड़कर हम सदा संसार रूपी विष ही माँगते हैं, यह हमारी घोर मूर्खता है, बाइबल (Bible) कहती है कि सुई की छेद से भले ही सैकड़ों ऊँटों का काफिला निकल जाये, लेकिन जिसके मन में संसार की कामनायें हैं, वह कभी भी ईश्वरीय राज्य में प्रवेश नहीं कर सकता.
दूसरी प्रकार की कामना है मुक्ति की कामना. यह तो और अधिक खतरनाक भुक्ति से भी अधिक. क्यों?भुक्ति की कामना करेगा कोई तो फिर भी ठीक है, संसार में तो रहेगा, फिर कल को यदि कोई महापुरुष मिल जाय और उससे तत्वज्ञान समझ ले तो अपना काम बना सकता है लेकिन अगर मुक्ति हो गई तो कभी भी भगवान् का प्रेम और सेवा नहीं प्राप्त कर सकता. क्योंकि मुक्ति में उसका स्वरुप भगवान् में लीन हो जाता है. तो यह तो और अधिक खतरनाक है. इसलिए भगवान् के भक्त इस मुक्ति का अनादर करते हैं. दूर से ही भगा देते हैं. गौरांग महाप्रभु जी के भक्त श्री हरिदास जी के पास मुक्ति आई कि महाराज आप भगवान् के भक्त हैं, हम आपके पास सेवा के लिए आई हैं. हरिदास जी ने पूछा आप कौन हैं? उसने जवाब दिया कि मैं मुक्ति हूँ. हरिदास जी ने दुत्कारा दूर, दूर, दूर. पास नहीं आना हमारे, तुम्हारे चँगुल में आकर भगवान् की भक्ति हमसे दूर हो जायेगी. तुलसीदास जी ने लिखा,
'भक्ति करत सोइ मुक्ति गुसाईँ, अनइच्छित आवत बरि आईं'.
किन्तु,
'अस विचारि जे परम सयाने, मुक्ति निरादर भक्ति लुभाने'.
भक्त मुक्ति की ओर ताकता भी नहीं है.
तो हमको ये दो प्रकार की कामनायें छोड़नी होंगी. अगर नहीं छोड़ी तो एक दिन ये हमको नास्तिक बना देगी. प्रह्लाद जी को देखिये, वे भगवान् से माँगते हौं कि यदि आप मुझ पर प्रसन्न ही हैं तो यह वरदान दीजिये कि मैं कभी भी आपसे कुछ न माँगूँ. माता कुंती तो भगवान् से दुःख माँगती है कि मुझको संसार का अभाव दे दीजिये ताकि मैं सदा स्मरण करती रहूँ,
'विपदः सन्तु नः शश्वत्तत्र तत्र जगद्गुरो ।
भवतो दर्शनं यत्स्यादपुर्नभवदर्शनम् ।।'
(भागवत 1-8-25)
हमको भगवान् के दर्शन, श्रवण, स्पर्श, गन्धादि की कामना तो करनी ही है, ये दिव्य कामनाये हैं. इससे हमारी भगवान् के लिए व्याकुलता बढ़ेगी.
(2) अब दूसरी शर्त है - ज्ञानकर्माद्यनावृतम्. अर्थात् भक्ति को ज्ञान और कर्म आदि के आवरण से मुक्त रहना चाहिए. इसका अर्थ है कि भक्तिमार्ग के पथिक को ज्ञान और कर्म संबंधी अलग से कोई विधान करने की आवश्यकता नहीं है. भक्ति इन पर आश्रित नहीं है. भक्ति स्वयं में स्वतंत्र है और भक्ति से सब कुछ प्राप्त हो जाता है. कर्म और ज्ञान की व्याख्या में आपको यह विस्तार से समझाया गया है.
तो तीन शर्तों में से ये प्रथम दो शर्ते हैं जिनका पालन करना अत्यंत अनिवार्य है. वरना भक्तिमार्ग पर कोई आरूढ़ नहीं हो सकता. भक्ति की एक तीसरी शर्त भी है. वह है कि भगवान् की हमको अनुकूल भाव से उपासना करनी है. इस शर्त की व्याख्या अगले प्रवचन में की जायेगी.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय... श्रीमत्सदगुरुसरकार की जय...
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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