II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - ३८
तीनिलोक अवलोकहिं नहिं उपमा कोउ ।
दसरथ जनक समान जनक दसरथ दोउ ।।१२९।।
सजहिं सुमंगल साज रहस रनिवासहि ।
गान करहिं पिकबैनी सहित परिहासहि ।।१३०।।
तीनों लोकोंको देखते हैं; [परन्तु] कहीं कोई उपमा नहीं मिलती । बस, महाराज दशरथ और जनकके समान तो जनक और दशरथ दो ही हैं ।१२९। रनिवासमें बड़ा आनन्द है । सब लोग श्रेष्ठ मङ्गलसाज सजा रहे हैं और कोकिलबयानी कामिनियाँ परिहास करती हुई गान कर रही हैं ।१३०।
उमा रमादिक सुरतिय सुनि प्रमुदित भईं ।
कपट नारि बर बेष बिरचि मंडप गईं ।।१३१।।
मंगल आरति साज बरहि परिछन चलीं ।
जनु बिगसीं रबि उदय कनक पंकज कलीं ।।१३२।।
उसे सुनकर पार्वतीजी, लक्ष्मीजी एवं अन्य देवताओंकी स्त्रियाँ आनन्दित हुईं और स्त्रियोंका सुन्दर छद्म-वेष बनाकर मंडपमें गयीं ।१३१।वे मङ्गल आरती सजाकर दुलहेका परिछन करने चलीं, वे ऐसी प्रसन्न हो रही हैं मानो सोनेके कमलकी कलियाँ सूर्योदय होनेपर फूल उठी हों ।१३२।
नख सिख सुंदर राम रूप जब देखहिं ।
सब इंद्रिन्ह महँ इंद्र बिलोचन लेखहिं ।।१३३।।
परम प्रीति कुलरीति करहिं गज गामिनि ।
नहिं अघाहिं अनुराग भाग भरि भामिनि ।।१३४।।
जब वे नखसे चोटीतक श्रीरामचन्द्रजीके सुन्दर रूपको देखती हैं, तब सभी इन्द्रियोंमें इन्द्रके-से नेत्रोंको ही श्रेष्ठ समझती हैं । (वे सोचती हैं जिस प्रकार इन्द्रके शरीरमें हजार नेत्र हैं, वैसे ही हमारे भी रोम-रोममें नेत्र होते तो श्रीरामचन्द्रजीकी अनुपम रूपसुधाका कुछ आस्वादन कर पातीं) ।१३३। अनुराग एवं सौभाग्यसे भरी हुई वे गजगामिनी स्त्रियाँ परम प्रीतिपूर्वक कुलाचार करती हैं किंतु अघाती नहीं ।१३४। ........................... क्रमशः
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राधे राधे ।