श्री जू का दर्पण निहारना
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श्री जू कान्हा की प्रतीक्षा में बैठी हैं । सखियों ने उनका श्रृंगार किया है एक सखी उनको दर्पण दिखाती है। जब भी श्री जू दर्पण में अपना मुख देखती हैं उन्हें सदैव कान्हा दीखते हैं उनकी सखियाँ समझती हैं की वो अपना रूप सौंदर्य निहार रही हैं जबकि श्री जू की आँखों में तो सदैव उनके प्रियतम की छवि रहती है। दर्पण देखने से उनको प्रियतम को निहारने का सुख मिलता है और सखियाँ इस बात से सुखी होती की हमारी स्वामिनी अपने श्रृंगार को देख प्रसन्न हैं हमारी सेवा स्वीकार कर स्वामिनी ने हमारा जीवन सौभाग्यशाली बनाया है। हमारे जीवन का मूल्य तो स्वामिनी की सेवा हेतु ही है । एक क्षण भी श्री जू की सेवा से विमुख होना इनके लिए दुखदाई है।
अभी स्थिति कुछ विचित्र हो गयी है। आज श्री जू को दर्पण में कान्हा नहीं दिख रहे। वो अत्यंत व्याकुल हो जाती हैं। कान्हा को ना पाकर उनकी आँखों से अश्रु प्रवाहित होने लगते। उनके कोमल होंठ फड़फड़ाने लगते। पूरी देह काम्पने लगती है। हाय !! प्रियतम कहाँ चले गए। मुझसे कब मिलेंगे । प्रतिदिन तो मिलते हैं आज क्यों छोड़ गए। अवशय ही मेरे प्रेम में कमी होगी मैं अपने प्रियतम को प्रसन्न नहीं कर पाई। श्री जू अत्यंत व्याकुल हो रुदन करने लगती हैं । उनकी सखी पुनः उन्हें दर्पण दिखाती हैं देखो राधे तुम कितनी सुंदर लग रही हो। अभी प्रियतम कान्हा आएंगे तुम्हें देख कितने प्रसन्न होंगें। तभी श्री जू को अपने अश्रु में ही कान्हा की छवि दिखती है और वो पुनः दर्पण निहारते निहारते आनंद के सागर में डूब जाती हैं। इस अद्भुत प्रेम की जय हो।
जय जय श्री राधे
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राधे राधे ।