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राधे राधे.. नेपाल प्रवचन सारांश : सातवाँ दिन - 15 सितंबर (9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)

राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : सातवाँ दिन - 15 सितंबर
(9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)

प्रवचन विषय : 'ज्ञान के लिए भक्ति की अनिवार्यता'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने दार्शनिक उदबोधन में सातवें दिन भगवत्प्राप्ति के ज्ञानमार्ग पर चर्चा की. उन्होंने समझाया कि कर्म की ही तरह ज्ञान मार्ग की निंदा व स्तुति दोनों आती है वेदों में. ज्ञान स्वतंत्र नहीं है, जैसे कर्म भक्ति पर आश्रित है ऐसे ही ज्ञान भी बिना भक्ति के सार्थक नहीं हो सकता. आइये हम ज्ञानमार्ग की इस वेद-पुराण-सम्मत व्याख्या को गद्य शैली में साररुप में समझें.
ज्ञानमार्ग - यह एक बहुत गंभीर विषय है. देखिये दो प्रकार का ज्ञान होता है, एक है शब्दात्मक ज्ञान और दूसरा है अनुभवात्मक ज्ञान. इसमें से ज्ञान अगर केवल शाब्दिक ही है, अनुभवात्मक नहीं हुआ तो ऐसे ज्ञान की निंदा की गई है. दूसरी ओर अनुभवात्मक ज्ञान की प्रशंसा की गई है वेदों में. ज्ञानमार्ग की निंदा क्यों है आइये जानें.
ईश्वरीय क्षेत्र में शाब्दिक ज्ञान का अर्थ है ईश्वरीय विषय का ज्ञान, वेद-शास्त्र का कंठस्थ ज्ञान, प्रवचन आदि भी दे सकता हो कोई, परंतु स्वयं साधना न की हो. यह शाब्दिक ईश्वरीय ज्ञान है. अब इसकी निंदा क्यों है सुनिए. अगर किसी को शाब्दिक ज्ञान है, वह इसमें निपुण है किन्तु स्वयं उसका आचरण नहीं करता अर्थात् भक्ति नहीं करता, साधना नहीं करता तो उसका यह ज्ञान उसके भीतर मिथ्याभिमान पैदा कर देगा कि मैं सब कुछ जानता हूँ. यह अभिमान आना स्वाभाविक ही है. क्योंकि अगर कोई चीज किसी के पास अधिक हो जाय किसी से, तो उसका अभिमान, भले ही वह सूक्ष्म क्यों न हो, उसके मन में आ ही जाता है. यथा रामायण कहती है - 'नहि कोउ अस जनमा जग माहीं, प्रभुता पाहि जाहि मद नाहीं'. जो भक्ति करते हैं, साधना करते हैं, उनके भीतर दीनता होती है किन्तु जो भक्ति से रहित केवल ज्ञान का लबादा ओढ़ते हैं वे निश्चय ही मिथ्याभिमान के चँगुल में फँस जाते हैं और एक शब्दज्ञान-रहित व्यक्ति से भी अधिक उसका पतन हो जाता है. वेद कहता है,
'ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाङ्-रताः'.
अर्थात् ज्ञानसम्पन्न व्यक्ति का एक दिन घोर पतन हो जाता है अगर वह भक्ति का आश्रय नहीं लेता.
लेकिन इसका ये अर्थ नहीं है कि शाब्दिक ज्ञान सर्वथा निरर्थक और अनावश्यक है. ईश्वरीय ज्ञान के लिए तो शाब्दिक ज्ञान परमावश्यक है. अगर कोई यह समझता है कि नहीं, केवल साधना ही की जाये, शाब्दिक ज्ञान अर्थात् वेदों के तत्वज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं है, तो वह नितान्त मूर्ख ही है. कारण कि अनंतानंत जन्मों से हमारे अंतःकरण में अनंत संस्कारों के परिणामस्वरूप जो विचार जम चुके हैं, जो संशय भर चुके हैं, उनका निवारण होना आवश्यक है. साथ ही जब हम साधना करने चलते हैं तो जो गड़बड़ी भीतर या बाहर से आया करती है, उसका परिहार भी अत्यावश्यक है. तो इन दोनों के लिए शाब्दिक ज्ञान परमावश्यक है ही है. जब उसका निराकरण हो गया, परिहार हो गया तो उस ज्ञान का अब त्याग कर देना चाहिए. जैसे किसी के पैर में काँटा चुभ गया तो उसको निकालने के लिए एक दूसरा काँटा चुभोना पड़ता है. जब काँटा निकल जाता है तब दोनों काँटों को फेंक दिया जाता है.
इसी प्रकार पहले शाब्दिक ज्ञान से साधना करके अपने भीतर से अज्ञान को निकाल दें फिर शाब्दिक ज्ञान (के अहंकार) एवं अज्ञान दोनों को फेंक दें. यदि पूर्व में ही शाब्दिक ज्ञान की अवहेलना हुई, अनदेखी हुई तो साधना पथ पर नहीं चल सकता कोई. यथा वेद कहता है,
'नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्' (शाठ्यायनि उपनिषद - 4)
अर्थात् शाब्दिक ज्ञान के बिना ईश्वरीय अनुभव-ज्ञान नहीं हो सकता. लेकिन यहाँ यही बात ध्यान देनी है कि वह केवल शाब्दिक ज्ञान ही न रहे, उस ज्ञान से भक्ति की जाय.
अब ज्ञानमार्ग में एक और रहस्य पर विचार करते हैं. ज्ञानमार्ग क्या है? इसका लक्ष्य अथवा परिणाम क्या है? ज्ञानमार्ग ज्ञानियों का मार्ग है. वस्तुतः यह मोक्ष यानी मुक्ति का मार्ग है. ज्ञानमार्ग अत्यंत दुष्कर है. सर्वप्रथम इस ज्ञानमार्ग में प्रवेश पाना ही अत्यंत कठिन है. इसके प्रवेश के लिए ही शर्त है कि वह शमादि षट्-संपत्तियों से युक्त हो. ये 'शम' माने क्या? मन पर कंट्रोल. मन पर कंट्रोल हो पहले. 'दम', इन्द्रियों पर कंट्रोल हो. अब बताइये क्या कोई ऐसा है विश्व में जो मन पर कंट्रोल करने के दावा कर सकता हो? मन के लिए तो गांडीवधारी अर्जुन श्रीकृष्ण से क्या कह रहे हैं सुनिए,
'चंचलम् हि मनः कृष्ण प्रमाधिबलवतदृढम्'.
यह मन बड़ा चँचल है. अर्जुन कह रहा है गीताज्ञानी. जिसने उर्वशी को जीत लिया. वह कहता है कि मन बड़ा चँचल है. यह मन ऐसा है कि एक क्षण को भी चुप नहीं बैठता. 'न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्'. एक क्षण में आकाश में तो दूसरे क्षण पाताल में पहुँच जाता है. इस मन को बड़े बड़े योगिन्द्र-मुनीन्द्र वश में नहीं कर सके. साधारण जीव कैसे करेगा भला? अर्थात् इस ज्ञान मार्ग में तो प्रवेश भी नहीं हो सकता.
और अगर प्रवेश हो भी जाय, कंट्रोल कर भी ले कोई तो? ज्ञानमार्ग पर चलने वाला ज्ञानी कहाँ तक पहुँचेगा? ज्ञानमार्ग की दो स्थितियाँ हैं - आत्मज्ञान और ब्रम्हज्ञान. 'मैं ही ब्रम्ह हूँ', इसकी परिणति है. यानी सब कुछ ब्रम्ह ही है, दूसरा कोई तत्व है ही नहीं. यह अद्वैतवादी सिद्धान्त है. कोई ज्ञानमार्गी साधक ज्ञान मार्ग पर चलते चलते पहले पंचमहाभूत, फिर प्रकृति और अहंकार को पार करके आत्म-तत्व पर पहुँचता है यानी आत्मज्ञान पर. अभी वह आत्मा के ही ज्ञान तक पहुँचा है. वेद कहता है कि आत्मज्ञानी का भी पतन हो जाता है. जड़भरत आत्मज्ञानी जीवन्मुक्त थे. हिरन में आसक्ति के कारण उनको दुबारा जन्म लेना पड़ा और अगले जन्म में हिरन बने.
'जीवन्मुक्ता अपि पुनर्बन्धनं यान्ति कर्मभिः'. (वासनाभाष्य)
जैसे बन्दर का बच्चा स्वयं अपने बल से अपनी माँ को पकडे रहता है ऐसे ही आत्मज्ञानी है. कभी भी उसका पतन हो सकता है, गिर सकता है. तो आत्मज्ञान तक पहुँच गया, अब इसके आगे नहीं जा सकता वो. अपने ज्ञान से वह आत्मज्ञान तक ही जा सकता है. वह भी बहुत ऊँची सीट है, आत्मज्ञान का आनंद संसारानन्द से कहीं गुना अधिक है. लेकिन अभी ज्ञानी को उसका लक्ष्य नहीं मिला. लक्ष्य क्या? ब्रम्हानंद, मोक्ष, मुक्ति. वह कैसे मिलेगी?
अब यहाँ आएगी भक्ति. सिद्धांत याद रखियेगा कि बिना भक्ति के ज्ञानी मोक्ष नहीं पा सकता. जैसे कर्ममार्ग में जो कर्मयोग अर्थात् कर्म प्लस भक्ति करेगा तब ही वह कर्म उसको भगवत्प्राप्ति करायेगा ऐसे ही ज्ञानी को भी आत्मज्ञान के पश्चात श्रीकृष्ण की भक्ति करनी ही पड़ती है. क्योंकि जब माया की निवृत्ति हो जायेगी तभी ज्ञानी को मोक्ष मिल सकता है और श्रीकृष्ण का चैलेन्ज है,
'मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते' (गीता)
जो केवल मेरी ही शरण में आते हैं वही मेरी माया को पार कर सकते हैं. आदि जगद्गुरु श्री शंकराचार्य जी ज्ञानियों के प्रणेता हैं. उन्होंने अपने सिद्धांतों में सगुण-साकार भगवान् का खंडन किया है. वे कहते रहे कि ब्रम्ह निर्गुण-निराकार ही है. जीव ही ब्रम्ह है. संसार-माया सब मिथ्या है. भ्रम है. किन्तु साथ ही साथ उन्होंने स्वयं अंतरंग रुप से श्रीकृष्ण की भक्ति भी की. चारों दिशाओं में चार तीर्थ बद्रिकाश्रम आदि स्थापित किये और सगुण-साकार भगवान् की मूर्ति की स्थापना भी की. उन्होंने स्वीकार किया कि एकमात्र श्रीकृष्ण कृपा से ही माया जा सकती है और मोक्ष मिल सकता है. कारण कि निर्गुण ब्रम्ह में तो कोई गुण होता ही नहीं. तो वे कृपा कहाँ से करेंगे? कृपा करना तो गुण है, स्वभाव है. इसलिए अंत में जाकर उन्होंने यह स्वीकार किया कि भगवान् सगुण-साकार भी है और उन्हीं की कृपा से मायानिवृत्ति संभव है. प्रबोध-सुधाकर में वे कहते हैं,
'शुद्धयति हि नान्तरात्मा कृष्णपदाम्भोज भक्तिमृते'. (प्रबोध सुधाकर-शंकराचार्य)
अर्थात् श्रीकृष्ण-भक्ति के बिना अंतःकरण शुद्धि नहीं हो सकती. बिना अंतःकरण की शुद्धि के मन पर कंट्रोल असंभव है.
शंकराचार्य जी ने आगे कहा -
'सत्यपि भेदापगमे नाथ ! तवाहं न मामकीनस्तवम् ।
सामुद्रो हि तरंगः क्वचन समुद्रो न तारंगः ।।'

(शंकराचार्य)
'नाथ' शब्द से पुकारा शंकराचार्य जी ने. यानी अपने आपको दास और उनको स्वामी स्वीकार कर रहे हैं. जीव ही ब्रम्ह है कहने वाले उन्होंने यहाँ भेद स्वीकार कर लिया. आगे कह रहे हैं -
'मत्स्यादिभिरवतारै रवता रवता सदा वसुधाम् ।
परमेश्वर परिपाल्यो भवता भवतापभीतो-अहम् ।।'

(शंकराचार्य)
अर्थात् हे परमेश्वर ! आपने मत्स्य, कच्छप, वारहादि अनंत अवतार लेकर समय समय पर पृथ्वी का भार उतारा है. तो क्या भवताप से डरे हुए शंकराचार्य का उद्धार न करोगे? यानी कि उन्होंने स्वीकार किया है ज्ञानमार्ग के साधक को भी श्रीकृष्ण भक्ति करनी ही होगी.
अपने एक शिष्य को भी, 'मुनुक्षुणा किं त्वरितं विधेयम्', अर्थात् मुमुक्षु जीव को तुरंत क्या करना चाहिए के उत्तर में कहा था - 'सत्संगतिर्निममतेशभक्तिः'. अर्थात् सत्संग करना चाहिए और इस संसार से ममता तोड़कर भगवान् की भक्ति करनी चाहिए. अपनी माता को उपदेश देते हुए उन्होंने उदघोष किया था कि हमें तो एकमात्र श्रीकृष्ण के पाद-पंकजों का भ्रमर ही बनना है.
देखिये,
'काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किंचित् फलं स्वेप्सितम् ।
केचित् स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभिः ।।
अस्माकं यदुनंदनांघ्रियुगलध्यानावधानार्थिनाम् ।
किं लोकेन दमेन कि नृपतिनाम् स्वर्गापवर्गैश्च किम् ।।'

(शंकराचार्य)
अर्थात् सकाम भक्ति करने वाले भोले लोग स्वर्गप्राप्ति हेतु सकाम कर्म करें, मैं नहीं करता. एवं ज्ञान-योगादि के द्वारा मोक्ष पद चाहने वाले उस मार्ग में जाकर मुक्त हों, हमें नहीं चाहिए. हम तो आनंदकंद-श्रीकृष्ण चरणारविन्द-मकरंद के भ्रमर बनेंगे.
अर्थात् ज्ञान भी भक्ति के सहारे सार्थक होगा. श्रीकृष्णभक्तियुक्त इस ज्ञानयोग की ही प्रशंसा वेदों ने की है. यहाँ एक बात और ध्यान देने की है कि ब्रम्हानंद जो है, वह प्रेमानंद के आगे फीका सा ही है. ब्रम्हानंद और प्रेमानंद में ऐसा अंतर है जैसे चन्दन के वृक्ष और उसके फूल की खुशबू में होगा. इतिहास साक्षी है कि अनेक परमहंस प्रेमरस की विलक्षणता से बरबस आकर्षित होकर ब्रम्हानंद को भूल जाते हैं. इतना क्या, श्रीकृष्ण के चरणारविंदों से लगी तुलसी की सुगंधि से ही ब्रम्हानंदी अपनी समाधि त्यागकर उस प्रेमानंद के लिए मचल जाते हैं.
वेदव्यास जी कह रहे हैं -
'आत्मारामाश्च मुनयो निर्गन्था अप्युरुकमे ।
कुर्वन्त्यहैतुकीं भक्तिमित्थम्भूतगुणो हरिः ।।'

(भागवत 1-7-10)
पुनः ज्ञानमार्ग में एक और घोर हानि यह है कि इस मार्ग में एक बार जो मुक्त हो गया फिर वह ब्रम्हानंद तो पा लेगा लेकिन प्रेमानंद से सदा सदा को वंचित हो जायेगा. क्योंकि उसके मन-बुद्धि आदि तो भगवान् में लीन ही गए, वह जैसे स्वयं रसगुल्ला हो गया, अब वह रसगुल्ले का स्वाद नहीं पा सकता. तो ऐसे ही मुक्तात्मा भगवान् के प्रेमरस से, लीलारस से, उनकी सेवा से सदा सदा के वंचित हो जाते हैं. और प्रेम का आकर्षण तो ऐसा है कि -
'आसामहो चरनरेजुषामहं स्याम् वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधिनाम् ।
या दुस्त्यजं स्वजनमार्यपथं च हित्वा भेजुर्मुकुन्दपदवीं श्रुतिभिर्विमृग्याम् ।।'

(भागवत 10-47-61)
ज्ञानियों ने नेता उद्धव बृजगोपियों के प्रेम में विभोर होकर श्रीकृष्ण से कह रहे हैं कि इन प्रेमाचार्या श्रीगोपियों की चरणधूलि पाने के लिए यदि मैं वृन्दावन में कोई लता, गुल्म, वृक्षादि होता तो भी अपना
भूरिभाग्य मानता.
भक्ति से वह सब कुछ सहज मिल जाता है जो कर्म और ज्ञान द्वारा प्रयत्न करने पर कठिनाई से प्राप्त होते हैं. इसलिए जो वास्तविक समझदार है वह और मार्गों में न जाकर भक्तिपथ पर ही अडिग रहता है. काकभुशुण्डि भगवान् राम से इसी भक्ति का वरदान माँगते हैं -
'अविरल भक्ति विशुद्ध तव, श्रुति पुराण जेहि गाव ।
जेहि खोजत योगीश मुनि, प्रभु प्रसाद कोउ पाव ।।
- देहु दया करि राम.....'

कल से हम इसी भक्तिमार्ग की गहराई से व्याख्या करेंगे. कर्म एवं ज्ञान से अनाच्छादित वह भक्ति सबके लिए सरल है और उसके सभी अधिकारी हैं, संक्षेप में आज तक के लिए यह याद रखना है कि कर्म और ज्ञान मार्ग से अगर कोई जाए तो लक्ष्यप्राप्ति के लिए साथ में श्रीकृष्ण-भक्ति परम अनिवार्य है.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय... श्रीमत्सदगुरुसरकार की जय...
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

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