गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - ३०
गये सुभायँ राम जब चाप समीपहि ।
सोच सहित परिवार बिदेह महीपहि ।।९९।।
कहि न सकति कछु सकुचति सिय हियँ सोचइ ।
गौरि गनेस गिरीसहि सुमिरि सकुचइ ।।१००।।
जब श्रीरामचन्द्रजी सहज भावसे धनुषके समीप गये, तब परिवारसहित राजा जनक सोचमें पड गये ।९९। संकोचवश जानकीजी कुछ कह नहीं पातीं, मन-ही-मन सोच करती हैं और पार्वती, गणेश तथा महादेवजीका स्मरण करके उन्हें संकोचमें डाल रही हैं ।।१००।।
होत बिरह सर मगन देखि रघुनाथहि ।
फरकि बाम भुज नयन देत जनु हाथहि ।।१०१।।
धीरज धरति सगुन बल रहति सो नाहिन ।
बरो किसोर धनु घोर दइउनहिं दाहिन ।।१०२।।
श्रीरामचन्द्रजीको देखकर वे विरहके सरोवरमें डूब रही हैं । उस समय उनके बाम भुजा और नेत्र फड़ककर मानो डूबनेसे बचानेके लिये हाथ बढाते हैं ।१०१। इस प्रकार शकुनके बलसे कुछ धीरज धरती हैं; परंतु वह स्थिर नहीं रहता । [वे सोचने लगती हैं कि] ‘वर तो किसोरावस्थाके हैं और धनुष विकराल है । इस समय विधाता भी अनुकूल नहीं है ।१०२। ....... क्रमशः
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राधे राधे ।