श्री कृष्ण और कुब्जा सुंदरी की कथा
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श्री कृष्ण ने कहा....
"हे सुंदरी ! तुम कौन हो ?"
श्री कृष्ण ने कुब्जा को सुंदरी कह कर सम्बोधित किया। कुब्जा कंस की दासी थी और प्रतिदिन कंस के लिये सुगंधित चंदन लेप बना कर लेकर जाती थी।कुब्जा ने यह 'सुंदरी' शब्द अपने लिये इससे पहले कभी नहीं सुना था। उसके हृदय में विचार आया कि वास्तव में उसे सुंदरी वही कह सकता है जिसका सर्वस्व अंतर्मन तक गूढ़ सौंदर्ययुक्य हो।
सुंदरता की परिभाषा यह नहीं कि सब असुंदर हों और उनके सामने हम सुंदर लगें, सुंदरता का मापदंड शारीरिक नहीं। सुंदरता की परिभाषा तो यह है कि जिसकी दृष्टि में असुंदर कोई हो ही न।
कुब्जा ने अपना परिचय दिया और कहा-"मैं कंस की दासी हूँ। तुम तो बहुत सुंदर हो, मेरा नाम त्रिवक्रा है"
'त्रिवक्रा' अर्थात काम क्रोध और लोभ तीनों दुर्गुकणों का सम्मिलित रूप।
भगवान ने कहा-"मेरा नाम त्रिविक्कम है- हम दोनों तो एक समान जैसे हैं मिलते जुलते से।"
भगवान ने एक उँगली कुब्जा की ठोड़ी के नीचे लगाई, उसे टेढ़ी से सीधा कर दिया और कुब्जा त्रिविका से परम सुंदरी बन गई।
तात्पर्य यह कि भगवान के सान्निध्य से, आश्रय से त्रिविका बुद्धि भी शुद्ध हो जाती है। हमारी बुद्धि जब कंस जैसे विषयासक्तों के सान्निध्य व आश्रय में रहेगी तो उसमें त्रिदोष आयेंगें-काम क्रोध व लोभ। ऐसी बुद्धि असुंदर होगी। यही बुद्धि जब प्रभु चरणों का आश्रय ले लेगी तब वह दोषरहित व सुंदर बन जायेगी।
★★राधे राधे
!! जय गोविंदा जय गोपाला, जय जय श्री राधेकृष्णा
!! मुरली मनोहर, कृष्ण कन्हैया ! सब बोलो जय श्री राधेकृष्णा !!★★
जीवन में परम सुख़ और कल्याण के लिये सदैव जपते रहिये
हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे !
हरे राम हरे राम, राम राम हरे हरे !!
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राधे राधे ।