गोपांगनाएँ कह रही हैं, ‘हे श्यामसुन्दर! आपके जन्म से व्रजधाम सर्वातिशायी उत्कर्ष को प्राप्त हो रहा है’। भागवत-वाक्य है-
वृन्दावनं सखि! भुवो वितनोति कीर्ति यद्देवकीसुतपदाम्बुजलब्धलक्ष्मि।[1]
अर्थात, हे सखि! वृन्दावनधाम के कारण सकल धरित्री-मण्डल की लोकोत्तर कीर्ति विस्तीर्ण हो रही है क्योंकि इस भूमि-खण्ड को ही देवकी-सुत व्रजेन्द्रनन्दन, कृष्णचन्द्र के व्यवधानशून्य निरावरण चरणारविन्दों का संस्पर्श प्राप्त हो रहा है। ब्रह्मा-रुद्रादि देवाधिदेव भी जिन भगवान के पादारविन्द-रज-संस्पर्श की सदा कामना करते हैं, उन्हीं के पादुकादि व्यवधानशून्य निरावरण चरणारविन्दों का संस्पर्श वृन्दावनधाम की भूमि को प्राप्त होता है। इस मंगलमय संस्पर्श का ही चमत्कार है कि वृन्दावन की भूमि रोमान्च-कंटकित हो रही है। वृन्दावनधाम की भूमि में जो विविध वृक्ष, लता, गुल्म एवं तृणादि उद्गत हैं वे ही मानों उदृप्त रोमान्चावलियाँ हैं। जैसे किसी रसिक को अपनी प्रियतमा के पादारविन्द-संस्पर्श से, किंवा जैसे गोपांगना-जनों को अपने मदनमोहन, व्रजेन्द्रनन्दन, श्यामसुन्दर के चरणाम्बुज-संस्पर्शष से लोकोत्मर आनन्दोद्रेक होता है वैसे ही इस भूमि को भी भगवान के पादत्राणादि व्यवधान-शून्य चरणारविन्द-संस्पर्श से लोकोत्तर आनन्दोद्रेक हो रहा है।
‘आनन्द-वृन्दावन-चम्पू’ नामक ग्रन्ध के अनुसार ‘वृन्दावनं, वृन्दायाः वनं’ अथवा ‘वृन्दस्य-गुणसमूहस्य अवनं रक्षमण् यस्मात् तत् वृन्दावनं’ अथवा ‘सकल-गुण वृन्दस्य अवनं, वृन्दावनं’ जहाँ सकल गुणों का रक्षण हो वह वृन्दावन, किंवा जो अचिन्त्य अनन्त कल्याण-गुण गणों का धाम हो वह वृन्दावन किंवा जालन्धर-दैत्य-पत्नी जिसके अनुराग से अत्यन्त उत्सुक होकर भगवान् पूर्णतम् पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन प्रभु ने भी छद्मवेष धारण किया उस परमानुरागिणो तुलसी-स्वरूपा, भगवद्भक्ति-स्वरूपा वृन्दा का यौवनरूप वन, वृन्दावन। जैसे अनुरागिणो प्रियतमा को अपने प्रियतम के संस्पर्श से लोकोत्तर आनन्दोद्रेक होता है वैसे ही वृन्दावनधाम को भी इस समय लोकोत्तर आनन्द प्राप्त हो रहा है। भगवत-पादारविन्द-निवासिनी लक्ष्मी की शोभा, प्रभा से संयुक्त हो वृन्दावनधाम स्वयं ही आनन्दधाम बना हुआ सम्पूर्ण भू-मण्डल की कीर्ति को विस्तीर्ण कर रहा है। जयजय श्यामाश्याम
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राधे राधे ।