जिज्ञासा;::_÷सुख दुःख और आनंद
मनुष्य को तीन प्रकार की
अनुभूतियां होती हैं। एक अनुभूति दुख की है; एक अनुभूति सुख की है; एक
अनुभूति आनंद की है। सुख की और दुख की अनुभूतियां बाहर से होती हैं। बाहर
हम कुछ चाहते हैं, मिल जाए, सुख होता है। बाहर हम कुछ चाहते हैं, न मिले,
दुख होता है। बाहर प्रिय को निकट रखना चाहते हैं, सुख होता है; प्रिय से
विछोह हो, दुख होता है। अप्रिय से मिलना हो जाए, दुख होता है; प्रिय से
बिछुड़ना हो जाए, तो दुख होता है। बाहर जो जगत है उसके संबंध में हमें दो
तरह की अनुभूतियां होती हैं–या तो दुख की, या सुख की।
आनंद की
अनुभूति बाहर से नहीं होती। भूल करके आनंद को सुख न समझना। आनंद और सुख में
अंतर है। सुख दुख का अभाव है; जहां दुख नहीं है वहां सुख है। दुख सुख का
अभाव है; जहां सुख नहीं है वहां दुख है। आनंद दुख और सुख दोनों का अभाव है;
जहां दुख और सुख दोनों नहीं हैं, वैसी चित्तकी परिपूर्ण शांत स्थिति आनंद
की स्थिति है। आनंद का अर्थ है– जहां बाहर से कोई भी आंदोलन हमें प्रभावित
नहीं कर रहा–न दुख का और न सुख का।
सुख भी एक संवेदना है, दुख भी एक
संवेदना है। सुख भी एक पीड़ा है, दुख भी एक पीड़ा है। सुख भी हमें बेचैन
करता है, दुख भी हमें बेचैन करता है। दोनों अशांतियां हैं। इसे थोड़ा अनुभव
करें, सुख भी अशांति है, दुख भी अशांति है। दुख की अशांति अप्रीतिकर है,
सुख की अशांति प्रीतिकर है। लेकिन दोनों उद्विग्नताएं हैं, दोनों चित्त की
उद्विग्न, उत्तेजित अवस्थाएं हैं। सुख में भी आप उत्तेजित हो जाते हैं। अगर
बहुत सुख हो जाए तो मृत्यु तक हो सकती है। अगर आकस्मिक सुख हो जाए तो
मृत्यु हो सकती है, इतनी उत्तेजना सुख दे सकता है।
दुख भी उत्तेजना
है, सुख भी उत्तेजना है। अनुत्तेजना आनंद है। जहां कोई उत्तेजना नहीं, जहां
चेतन पर बाहर का कोई कंपन, प्रभाव नहीं कर रहा, जहां चेतन बाहर से बिल्कुल
पृथक और अपने में विराजमान है। उत्तेजना का अर्थ है– अपने से बाहर संबंधित
होना, अपने से बाहर विराजमान होना। उत्तेजना का अर्थ है– अपने से बाहर
विराजमान होना। जैसे कि झील पर लहरें उठती हैं, लहरें झील में नहीं उठती
हैं, लहरें हवाओं में उठती हैं और झील में कंपित होती हैं। हवाओं के प्रभाव
में, हवाओं के फर्क में झील पर लहरें उठती हैं। लहरों के उठने का अर्थ है–
झील अपने से बाहर किसी चीज से प्रभावित हो रही है। अगर झील अपने से बाहर
की किसी चीज से प्रभावित न हो तो क्या हो? तो झील परिपूर्ण शांत होगी,
उसमें कोई लहरें नहीं होंगी। हमारा चित्त बाहर से प्रभावित होता है तो
लहरें उठती हैं सुख की, और दुख की और जब हमारा चित्त बाहर से अप्रभावित
होता है…नहीं होता। तब जो स्थिति है उस स्थिति का नाम आनंद है। सुख और दुख
अनुभूतियां हैं बाहर से आई हुईं, आनंद वह अनुभूति है जब बाहर से कुछ भी
नहीं आता। आनंद बाहर का अनुभव न होकर अपना अनुभव है।
इसलिए सुख और
दुख छीने जा सकते हैं, क्योंकि वे बाहर से प्रभावित हैं, अगर बाहर से हटा
लिए जाएंगे तो सुख और दुख बदल जाएंगे। जो आदमी सुखी था, किसी कारण से था;
कारण हट जाएगा, दुखी हो जाएगा। जो आदमी दुखी था, किसी कारण से था; कारण हट
जाएगा, सुखी हो जाएगा। आनंद निःकारण है, इसलिए आनंद को छीना नहीं जा सकता।
आपका सुख छीना जा सकता है, आपके दुख छीने जा सकते हैं, आपका आनंद नहीं छीना
जा सकता। जो भी बाहर पर निर्भर है वह छीना जा सकता है। इसलिए सुख भी क्षण
स्थायी है, दुख भी क्षण स्थायी है, आनंद नित्य है। सुख भी परतंत्रता है,
दुख भी परतंत्रता है, क्योंकि दूसरे का उसमें हाथ है। आनदं स्वतंत्रता है।
दुख भी बंधन है, सुख भी बंधन है, आनंद मुक्ति है।
तो आनंद मनुष्य का
अपने चैतन्य में स्थित होने का नाम है। सुख मिलता है, दुख मिलता है, आनंद
मिलता नहीं है। आनंद मौजूद है, केवल जानना होता है। सुख को पाना होता है,
दुख को पाना होता है, आनंद को पाना नहीं होता, केवल आविष्कार करना होता है,
डिस्कवरी करनी होती है। वह मौजूद है। क्योंकि जो चीज पाई जाएगी वह खो सकती
है। इसे स्मरण रखों, जो चीज पाई जा सकती है वह खो भी सकती है। आनंद, मैंने
कहा– खो नहीं सकता, इसलिए वह पाया ही नहीं जा सकता। वह मौजूद है, केवल
जाना जाता है।
तो आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं – आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है– आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है।
महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। महावीर को जो आनंद मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं है। फिर भेद कहां है? वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का है, भेद अवस्था का, स्थिति का, स्टेट ऑफ बीइंग नहीं है, स्टेट ऑफ नोइंग का है। ज्ञान भेद है, स्थिति भेद नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका
महावीर को हो रहा है? जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का, बोध नहीं कर सकेगा। क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है।
सुख-दुख का उलझाव मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तो जिसको भीतर जाना हो, उसे सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है, दुख से तो कोई भी हटना चाहता है, दुख से कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, लेकिन जो सुख से हटने में लग जाएगा वह आनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से तो कोई भी हटना चाहता है। वह साधना नहीं है, वह सामान्य चित्त का भाव है। जो सुख से हटना चाहेगा, वह आनंद में पहुंच जाएगा। दुख से जो हटना चाहता है उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुख से हट रहा है उसकी आकांक्षा आनंद की है। साधना का अर्थ है– सुख से हटना। साधना का अर्थ है– सुख-त्याग।
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तो आनंद के संबंध में दो स्थितियां हैं – आनंद के प्रति अज्ञान और आनंद के प्रति ज्ञान। आनंद की और निरानंद की स्थितियां नहीं हैं, यानी मनुष्य ऐसी स्थिति में नहीं होता कि एक आनंद की स्थिति है और एक निरानंद की। वह दो स्थितियों में होता है– आनंद के प्रति ज्ञान की स्थिति, आनंद के प्रति अज्ञान की स्थिति। आनंद तो मौजूद है।
महावीर को, बुद्ध को, क्राइस्ट को जो आनंद मिला वह आपमें भी मौजूद है। आपमें और उनमें आनंद की दृष्टि से भेद नहीं है, भेद ज्ञान की दृष्टि से है। आनंद की दृष्टि से कोई भेद नहीं है। महावीर को जो आनंद मिला वह आपमें भी उतना ही मौजूद है, जरा कण भर भी कम नहीं है। फिर भेद कहां है? वे आनंद को देख रहे हैं, आप आनंद को नहीं देख रहे। वे आनंद को जान रहे, आप आनंद को नहीं जान रहे हैं। भेद ज्ञान का है, भेद अवस्था का, स्थिति का, स्टेट ऑफ बीइंग नहीं है, स्टेट ऑफ नोइंग का है। ज्ञान भेद है, स्थिति भेद नहीं है। फिर हमें क्यों उसका बोध नहीं हो रहा है जिसका
महावीर को हो रहा है? जो आदमी सुख-दुख का बोध कर रहा है वह आनंद का, बोध नहीं कर सकेगा। क्योंकि सुख और दुख बाहर हैं, जो उनमें उलझा है वह बाहर उलझा है, उसके भीतर जाने की उसे फुर्सत नहीं है।
सुख-दुख का उलझाव मनुष्य को अपने से बाहर किए है। तो जिसको भीतर जाना हो, उसे सुख-दुख के उलझाव से पीछे सरकना होगा। स्मरणीय है, दुख से तो कोई भी हटना चाहता है, दुख से कोई भी हटना चाहता है, समस्त प्राणी-जगत हटना चाहता है, लेकिन जो सुख से हटने में लग जाएगा वह आनंद पर पहुंच जाएगा। दुख से तो कोई भी हटना चाहता है। वह साधना नहीं है, वह सामान्य चित्त का भाव है। जो सुख से हटना चाहेगा, वह आनंद में पहुंच जाएगा। दुख से जो हटना चाहता है उसकी आकांक्षा सुख की है, जो सुख से हट रहा है उसकी आकांक्षा आनंद की है। साधना का अर्थ है– सुख से हटना। साधना का अर्थ है– सुख-त्याग।






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राधे राधे ।