II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - ३१
अंतरजामी राम मरम सब जानेउ ।
धनु चढ़ाइ कौतुकहिं कान लगि तानेउ ।।१०३।।
प्रेम परखि रघुबीर सरासन भंजेउ ।
जनु मृगराज किसोर महागज भंजेउ ।।१०४।।
अन्तर्यामी श्रीरामचन्द्रजीने जानकीजीका सारा मर्म जान लिया (अर्थात् वे श्रीजानकीजीके मनका दुःख समझ गये) । बस उन्होंने कौतुकसे ही धनुषको चढ़ाकर कानतक तान लिया ।१०३। श्रीजानकीजीके प्रेमको परखकर श्रीरामचन्द्रजीने धनुषको उसी प्रकार तोड़ दिया, जैसे कोई सिंहका बच्चा बड़े भारी हाथीको मार डाले ।१०४।
गंजेउ सो गर्जेउ घोर धुनि सुनि भूमि भूधर लरखरे ।
रघुबीर जस मुकता बिपुल सब भुवन पटु पेटक भरे ।।
हित मुदित अनहित रुदित मोहक छबि कहत कबि धनु जाग की ।
जनु भोर चक्क चकोर कैरव सघन कमल तडाग की ।।१३।।
धनुषको जब तोडा गया, तब उसका ऐसा घोर गर्जन हुआ कि उसे सुनकर पृथ्वी और पर्वत डगमगा गये । श्रीरामचन्द्रजीकी सुयशरूपी बहुत-से मोतियोंसे समस्त भुवन-मण्डलरूप सुन्दर पिटारे भर गए । (अर्थात् चौदहों भुवनमें उनका सुयश व्याप्त हो गया) इससे मित्रलोग आनन्दित हुए और शत्रुओंका मुख रुआँसा हो गया । उस समयकी धनुष-यज्ञकी छबिको कबि इस प्रकार वर्णन करता है कि प्रातःकाल चकवा-चकवी, कुमुदिनी और सघन कमलवनसे युक्त तालाबकी जैसी शोभा होती है, वैसी ही उस यज्ञकी हुई (भाव यह है कि शत्रुलोग तो चकोर और कुमुदिनियोंके समान निस्तेज हो गए और सत्पुरुष चकवा-चकवी एवं कमलवनके समान प्रफुल्लित हो गए) ।।१३।। ................. क्रमशः
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राधे राधे ।