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निर्ममता से निष्कामता --


निर्ममता से निष्कामता --
निर्विकारता अर्थात् विकार से रहित भाव होगा निर्ममता से | ममता है तो कामना और फिर लोभ आदि है | निर्विकारता के समान सौन्दर्य दुर्लभ ही है | निर्विकारता में आकर्षण है ... जैसे क्रोधी भी क्रोधी से न जुडना चाहेगा | लोभी भी लोभी से , झुठ (मिथ्या) बोलने वाला सत्यवादी ही तलाशेगा | विकारों में आकर्षण नहीं , आज प्राकृतिक गुण ना होने से प्राकृतिक आकर्षण भी जगत् में नहीं | बाहर की कुरुपता से भी भयानक है भीतर की कुरुपता , ;जो सदा स्वत: त्याज्य ही है | 
निर्विकारता का भी अभिमान ना हो ऐसा प्रयास प्रेमियों का रहता है , तब ही नित-नव-प्रियता की आकुलता सम्भव है | प्रियता की उत्कट लालसा में ही रस ही रस है | प्रियता से कभी निराश ना हो कर आतुर ही होना चाहिये | गहरी आत्मीयता अर्थात् पूर्ण अपनापन ही नित-नविन-उत्कट लालसा (पिपासा) को जगाता है | यें आत्मीयता ही मानव की निज सम्पत्ति है | इसी आत्मीयता में अनुपम-नुतन माधुर्य है , जो प्रेमास्पद (जहाँ प्रेम किया गया ) अर्थात् हमारे कुंजबिहारी जी को अति प्रिय है | परन्तु निष्कामता के बिना आत्मीयता सजीव नहीं होती है ... .. निष्कामता से बचना नहीं है , निष्कामता तो मानव के जीवन का सच्चा ऐश्वर्य ही है | निष्काम होने पर मानव स्वत: विश्वविजयी हो जाता है , कारण द्वंद नहीं रहता , जडता में , वस्तु आदि में ममता नहीं रहती ! अत: संसार के प्रति निर्ममता से निष्कामता तक जाया जाता है | मिली हुई वस्तु-पदार्थ हमारे नहीं , सभी जानते ही है परन्तु अपने ही जानी हुई इस बात से कि मेरा नहीं ... ना ही हो सकता है ... मानव ममता में बंध जाता है | और ज्ञात अज्ञात दोषों का समुह ही खडा हो जाता है | जानी हुई बात है .... मेरा कुछ नहीं , इसे मान लेने से जगत के प्रति निर्ममता प्राप्त होती है .... जो जीवन के वास्तविक विकास का मूल है | सत्यजीत "तृषित"
तुलसी ममता एक राम से ....

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