सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम |
जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 119से आगे .....
चौपाई :
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई। सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई।।
राम भगति चिंतामनि सुंदर। बसइ गरुड़ जाके उर अंतर।।
परम प्रकास रूप दिन राती। नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती।।
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा। लोभ बात नहिं ताहि बुझावा।।
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई। हारहिं सकल सलभ समुदाई।।
खल कामदि निकट नहिं जाहीं। बसइ भगति जाके उर माहीं।।
गरल सुधासम अरि हित होई। तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई।।
ब्यापहिं मानस रोग न भारी। जिन्ह के बस जीव दुखारी।।
राम भगति मनि उर बस जाकें। दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें।।
चतुर सिरेमनि तेइ जग माहीं। जे मनि लागि सुजतन कराहीं।।
सो मनि जदपि प्रगच जग अहई। राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई।।
सुगम उपाय पाइबे केरे। नर हतभाग्य देहिं भटभेरे।।
पावन पर्बत बेद पुराना। राम कथा रुचिराकर नाना।।
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी। ग्यान बिराग नयन उरगारी।।
भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाव भगति मान सब सुख खानी।।
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा। राम ते अधिक राम कर दासा।।
राम सिंधु घन सज्जन धीरा। चंदन तरु हरि संत समीरा।।
सब कर फलर हरिस भगति सुहाई। सो बिनु संत न काहूँ पाई।।
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा। राम भगति तेहिं सुलभ बिहंगा।।
भावार्थ: मैंने ज्ञानका सिद्धान्त समझाकर कहा। अब भक्तिरूपी प्रभुता (महिमा) सुनिये। श्रीरामजीकी भक्ति सुन्दर चिन्तामणि है। हे गरुड़जी ! यह जिसके हृदयके अंदर बसती है।। वह दिन-रात [अपने-आप ही] परम प्रकाशरूप रहता है। उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिये। [इस प्रकार मणिका एक तो स्वाभाविक प्रकार रहता है] फिर मोहरूपी दरिद्रता समीप नहीं आती है [क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है]; और [तीसरे] लोभरूपी हवा उस मणिमय दीपको बुझा नहीं सकती [क्योंकि मणि स्वयं प्रकाशरूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से नहीं प्रकाश करती]।।[उसके प्रकाशसे] अविद्या का प्रबल अन्धकार निज जाता है। मदादि पतंगोंका सारा समूह हार जाता है। जिसके हृदयमें भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो पास भी नहीं आते जाते।।उसके लिये विष अमृतके समान और शत्रु मित्र के समान हो जाता है। उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता। बड़े-बड़े मानस-रोग, जिसके वश होकर सब जीव दुखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते।।श्रीरामभक्तिरूपी मणि जिसके ह्ररदयमें बसती है, उसे स्वप्नमें भी लेशमात्र दुःख नहीं होता। जगत् में वे ही मनुष्य चतुरोंके शिरोमणि हैं जो उस भक्तिरूपी मणि के लिये भलीभाँति यत्न करते हैं।।यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्रीरामजीकी कृपाके उसे कोई पा नहीं सकता। उनके पाने उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं।।वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं। श्रीरामजीकी नाना प्रकारकी कथाएँ उन पर्वतों में सुन्दर खानें हैं। संत पुरुष [उनकी इन खानोंके रहस्यको जाननेवाले] मर्मी हैं और सुन्दर बुद्धि [खोदनेवाली] कुदाल है। हे गरुड़जी ! ज्ञान और वैराग्य- ये दो उनके नेत्र हैं।।जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता हैं, वह सब सुखों की खान इस भक्तिरूपी मणिको पा जाता है। हे प्रभो ! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्रीरामजी के दास श्रीरामजीसे भी बढ़कर हैं।।श्रीरामचन्द्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं। श्रीहरि चन्दनके वृक्ष हैं तो संत पवन हैं। सब साधनों का फल सुन्दर हरि भक्ति ही है। उसे संतके बिना किसी ने नहीं पाया।।ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी ! उसके लिये श्रीरामजीकी भक्ति सुलभ हो जाती है।।
दोहा :
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं।।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं।।120क।।
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि।।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि।।120ख।।
भावार्थ: ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मन्दराचल है और संत दवता है। जो उस समुद्रको मथकर अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है।।वैराग्यरूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोहरूपी वैरियोंको मारकर जो विजय-प्राप्त करती है, वह हरिभक्ति ही है; हे पक्षिराज ! इस विचार कर देखिये।।120(क -ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 120, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
राधे राधे ।