II सीताराम II
गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - ३२
कर कमलनि जयमाल जानकी सोहइ ।
बरनि सकैछबि अतुलित अस कबि कोहइ ।।१०७।।
से सनेह सकुच बस पिय तन हेरइ ।
सुरतरु रुख सुरबेलि पवन जनु फेरइ ।।१०८।।
जानकीजीके करकमलोंमें जयमाल शोभा दे रही है; भला ऐसा कौन कबिहै, जो उस अतुलित छाबिका वर्णन कर सके ।१०७। जानकीजी प्रेम और संकोचबश प्रियतमकी ओर देखती हैं, मानो वायु कल्पलताको कल्पवृक्षकी ओर घुमा रहा है ।१०८।
लसत ललित कर कमल माल पहिरावत ।
काम फंद जनु चंदहि बनज फँसावत ।।१०९।।
राम से छबि निरुपम निरुपम सो दिनु ।
सुख समाज लखि रानिह्न आनँद छिनु-छिनु ।।११०।।
जयमाल पहनाते समय उनके सुन्दर करकमल ऐसे सुशोभित जान पड़ते हैं मानो कमल कामदेवके फंदेसे चन्द्रमाको फँसाते हों ।१०९। श्रीराम और जानकीजीकी अनुपम शोभा और वह दिन भी अनुपम था । उस सुख-समाजको देखकर रानियोंको क्षण-क्षणमें आनन्द हो रहा था ।११०।
प्रभुहि माल पहिराइ जानकिहि लै चलीं ।
सखीं मनहुँ बिधु उदय मुदित कैरव कलीं ।।१११।।
बरषहिं बिबुध प्रसून हरषि कही जय जए ।
सुख सनेह भरे भुवन राम गुर पहँ गए ।।११२।।
श्रीरामचन्द्रजीको माला पहिनाकर सखियाँ जानकीजीको लिवा चलीं, वे प्रफुल्लित हो रहीं हैं जैसे चन्द्रमाका उदय होनेसे कुमुदिनीकी कलियाँ खिल उठती है ।१११। देवता लोग आनन्दित होकर जय-जयकार करते हुए फूल बरसाते हैं । उस समय सारे भुवन सुख और स्नेहसे भर गये और श्रीरामचन्द्रजी गुरुके पास चले गए ।११२। ........................... क्रमशः
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राधे राधे ।