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मीरा और ललिता

मीरा और ललिता ने श्री गिरिराज जी की तरहटी में हुई लीला का दर्शन किया। मीरा ने देखा गिरिराज धरण श्यामसुन्दर ने मुस्कराते हुए जब वर्षा उपरान्त सबको आश्वस्त करते हुए घर जाने को कहा तो माधवी की ओर भूल कर भी न देखा।

माधवी स्वयं को यूँ उपेक्षिता पा तड़प सी उठी- "अरी मैया यह कैसी उल्टी शिक्षा दी तैंने? यह शिक्षा यह लाज ही मेरी बैरन हो गई" वह व्याकुल हो पुकार उठी -"क्षमा करो ठाकुर मुझ अबोध से भूल हुई। कृपा करो मैं ऐसा क्या करूँ जिससे आप प्रसन्न होवो अब यह माधुरी छवि मेरी आँखों से दूर न हो कृपा करो" -वह जहाँ थी वहीं अचेत सी गिर पड़ी।

अब की बार सरस-मीठी वाणी कानों में सुधा-सिंचन करने लगी -"भूल मान गयी है ,अत: दर्शन तो नित्य होंगे,पर हमारी अन्तरंग लीला में सम्मिलित न हो सकोगी। परिमार्जन पश्चाताप के लिए कलिकाल में जन्म लेकर भक्ति-पथ का अनुसरण करने पर शुद्ध होकर ही मुझे प्राप्त कर पाओगी" -माधवी अचेत हो गयी।

उस दिन के पश्चात माधवी का व्यवहार एकाएक परिवर्तित हो गया। अब नित्य प्रातः साँय मुरली-रव कानों में पड़ते ही अटारी पर चढ़ जाती, पुष्प वर्षा करती। सखियों के संग जा-जा कर लीला-स्थलियों के दर्शन करती और उनकी बाते ध्यान से सुनती कि आज कन्हैया ने किसका घड़ा फोड़ा, किसके घर माखन की कमोरी फोड़ी, किसकी चोटी खाट से बाँधी, किसके बछड़े को खोलकर दूध पिला दिया। इन विविध लीलाओं को सुन-सुन करके अकेले में अश्रु बहाती। सोचती मैं भी तो सबके साथ ही रहती हूँ परंतु मेरी मटकी को हाथ तक भी नहीं लगाया। कभी मुझे चिढ़ाया भी नहीं और तो और कभी मेरी ओर ठीक से देखा तक नहीं।

उसकी सास बार-बार पूछती कि कोई मांदगी लगी हैं क्या बहू?
कही दुखता हैं बेटी? तू ठीक से कुछ खाती-पीती भी नहीं।पीहर की,मैया की याद आ रही हो तो कछु दिन वहाँ हो आ लाली'

माधवी ने तुरंत उत्तर दिया- "ना मैया मोकू पीहर नाय जानों।मैं तो स्वस्थ हूँ मैया आप कछु चिंता मत करबो करौ" -मीठा बोल सास को तो समझा लेती पर उसका ह्रदय ही जानता कि जिसकी मधुर छवि उसके मन प्राण में अटकी है उसकी उपेक्षा उसकी विमुखता को सहन करने में वह किस कष्ट में जी रही है। भीतर ही भीतर जैसे वह घुलती सी जा रही थी।

ऐसे में उसके प्राणाराध्य की चर्चा ही उसके प्राणों का आधार थी।गृह कार्यों से निवृत हो वह पद-सेवा के मिस अपने पति सुंदर के चरणों को गोद में लेकर बैठ जाती और धीरे से कोई चर्चा चला देती -'आज आपके सखा और आप? बस उसके लिए इतना संकेत ही पर्याप्त था। व्रज में तो सभी कृष्ण-चर्चा कृष्ण-गुणगान के व्यसनी हैं। चर्चा आरम्भ हुई तो दोनों इतने निमग्न की रात्रि कब बीती, दोनों ही जान नहीं पाते। भोर होने पर ताम्रचूड की बाँग ही उन्हें सचेत करती।

दिन बीत रहे थे इसी प्रकार और एक दिन वज्रपात हुआ ,वृन्दावन में तो जैसे सबके पावँ तले धरती ही खिसक गई हो, पता लगा कि मथुरा से अक्रूर श्रीकृष्ण को लिवाने आया है। श्रीराधा रानी तो ठाकुर के लिये माला गूँथ कर यमुना किनारे प्रतीक्षा रत थीं। श्रीकृष्ण के मथुरा गमन जाने का सुन उनकी अन्तरंग सखियों की स्थिति तो कहाँ तक वर्णन करें? श्रीराधा रानी को कौन कैसे बताये? ललिता जी स्वयं को सम्भाल प्रियाजी को नन्दभवन के बाहर राजपथ तक रथ के पास ले आई। वहाँ तो समस्त ब्रज ही मानों आँसुओं में डूब रहा था। माधवी भी स्वयं की मर्यादा भूल राजपथ पहुँची और आँसुओं की झड़ी थमती न थी -"हाय ! जब श्यामसुन्दर यहाँ थे तो मैं बैरन लाज के जंजाल में फँसी रही। जब सुध आई तो मेरे हिस्से में उपेक्षा ही आई और अब मैं कैसे जीवन धारण करूँगी?"

क्रूर अक्रूर ब्रजेन्द्रनन्दन ब्रज के प्राणाधार को लेकर मथुरा ले चला गया और इधर मीरा मुर्छित हो ललिता के चरणों में जा गिरी।
श्रिश्री हरि मन्दिर वृन्दावन
राधे राधे

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