राधे राधे.. नेपाल प्रवचन सारांश : छठवाँ दिन - 14 सितंबर (9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल) प्रवचन विषय : 'भक्तियुक्त कर्म-धर्म का निरुपण'
राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : छठवाँ दिन - 14 सितंबर
(9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : 'भक्तियुक्त कर्म-धर्म का निरुपण'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने अपने दार्शनिक उदबोधन में छठे दिन कर्ममार्ग की व्याख्या में समझाया कि कोरा कर्म-धर्म हमारे लक्ष्य की प्राप्ति नहीं करा सकता क्योंकि उससे अंतःकरण की शुद्धि नहीं होगी. लेकिन जब इसी कर्म में भक्ति का मिश्रण हो जाता है तब वह 'कर्मयोग' हो जाता है. यह कर्मयोग भगवान् की प्राप्ति करा देती है क्योंकि इससे अंतःकरण की शुद्धि हो जाती है. कर्म के इसी स्वरुप की वेदों-शास्त्रों ने प्रशंसा की है. आइये इसे हम सविस्तार वेदों के प्रमाणों से समझें.
कल के सारांश में हमने जाना था कि कर्म-धर्म से हमको आनंद कभी भी नहीं मिल सकता क्योंकि उससे मन की शुद्धि नहीं होगी. तुलसीदास जी ने कहा कि, 'भेषज पुनि कोटिन करिय, रुज न जाहिं हरियान', अर्थात् करोड़ों प्रयत्न भी कोई कर ले तो भी मन की गन्दगी, मन के रोगों को नहीं मिटा सकता. कर्म-धर्म, वह भी अगर शत्-प्रतिशत वेदविहित हो तो स्वर्ग दे देगा बस. लेकिन एक बात अवश्य ध्यान देनी है कि इन कर्म-धर्म के इतने कड़े नियम हैं वेदों में कि उसका पालन कोई कर नहीं सकता. त्रुटि होने पर दंड का भी विधान है. अगर कोई कर भी ले कैसे भी तो उसका फल नश्वर है. इसलिए शास्त्रों ने कर्म-धर्म, ध्यान दीजियेगा कोरे कर्म-धर्म यानी भक्तिरहित कर्म-धर्म की निंदा की है.
अब प्रारम्भ में आपको यह बताया गया था कि कर्म मार्ग की प्रशंसा भी की गई है. तो आइये इसको समझ लेते हैं क्योंकि यह हमारे काम की है.
कर्म के मुख्यतः 4 प्रकार होते हैं - कर्म, विकर्म, अकर्म यह कर्मयोग और कर्मसन्यास. इसमें पहला कर्म तो आपको समझा दिया गया कि जो शत्-प्रतिशत वेदविहित हो, इसका फल स्वर्ग. दूसरा है विकर्म, विकर्म यानी पाप कर्म, अपराध. ऐसे कर्म जो वेदों में निषिध्द कहे गए या वेदों, संतों के विरुद्ध आचरण, मनमाना कर्म, उसको पाप कहते हैं. पाप बहुत प्रकार के होते हैं. चोरी करना, झूठ बोलना, हत्या करना इत्यादि आओ सब जानते हैं. ये जो घोर भौतिकवादी हैं, नास्तिक हैं, इन्हें ईश्वर और महापुरुषों से घृणा रहती है. फलस्वरुप इनको न तो स्वर्ग की ही प्राप्ति होती है और न ही ईश्वर की. इन्हें नरक की घोर यातनायें भुगतनी पड़ती हैं.
अब तीसरा है कर्मयोग या अकर्म. इसको गहराई से समझना है. 'कर्मयोग' में दो शब्द हैं. 'कर्म' प्लस 'योग'. यानी इसमें शरीर से तो श्रुति-स्मृति-प्रतिपादित कर्म-धर्म का पालन होता है लेकिन मन से ईश्वर की भक्ति की जाती है. यानी मन का संबंध पूर्णरूप से भगवान् में किया जाय. इसका क्या परिणाम होगा?
परिणाम जानने से पहले हमको एक सिद्धांत समझ लेना चाहिए. वह आध्यात्मिकता की नींव है. क्या है वह सिद्धांत? वेद कह रहा है -
'मन एव हि मनुष्याणां कारणं बंध मोक्षयोः'
मतलब? मतलब ये कि ईश्वरीय राज्य में मन ही बंधन और मोक्ष का कारण माना गया है. वहाँ इन्द्रियों के वर्क से कोई मतलब नहीं है. वह लिखा ही नहीं जाता भगवान् की फ़ाइल में. 'मन एव' कहा वेद ने, यानी मन ही.. ही.. कोरा कर्म धर्म जो होता है उसमे मन से कोई मतलब नहीं होता, वह शरीर से किया जाता है. इसलिए मन की उससे शुद्धि नहीं होती.
लेकिन जब हम कर्मयोग करते हैं तब क्या होता है? इसमें हम शरीर से तो कर्म धर्म कर रहे होते हैं लेकिन हमारा मन भगवान् में निरंतर अटैच्ड रहता है. यानी लगा रहता है. तो हमको यहाँ पर मन के ही कर्म का फल भगवान् प्रदान करते हैं, अर्थात् दिव्य फल प्राप्त होता है भगवान् वाला. शरीर का कर्म नोट ही नहीं होता अतः उसका फल शून्य होता है.
गीता में अर्जुन पाप-पुण्य के गहरे संशय में फँसा हुआ था. उसको बड़ा डाउट था कि ऐसा करूँगा तो यह फल प्राप्त होगा, ऐसा करूँगा तो नरक मिलेगा आदि. तो उसको श्रीकृष्ण ने समझाया कि तू एक काम कर, तू युद्ध न कर, ऐसा भी न कर और युद्ध कर, ऐसा भी न कर. क्योंकि युद्ध न करेगा तो यह तेरे क्षत्रिय धर्म के विरुद्ध होगा और अगर युद्ध करता है तो कर्मबंधन में फँसेगा तो तू दोनों न कर. अर्थात् कुछ न कर, अकर्म कर.
श्रीकृष्ण ने कहा,
'तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च'. (गीता 8-7)
तू अपना मन निरंतर मुझमे लगाये रख और शरीरमात्र से युद्ध कर. अर्जुन ने वैसा ही किया. रामायण में श्री हनुमान जी लंका में सैकड़ों-हजारों ब्राम्हणों की हत्यायें कर रहे हैं और सर्वत्र सीता-राम को देख रहे हैं, 'सियाराम मय सब जग जानी'. ऐसा करने से उन्हें शरीर के कर्म का कोई फल प्राप्त नहीं हुआ.
हमारा मन अनादिकाल का घोर गन्दा पापयुक्त है. भगवान् परम विशुद्ध पर्सनालिटी है. तो जब किसी गंदे कपडे को साफ़ पानी में डुबोया जाता है तो उससे गन्दगी निकलती जाती है और कपडा धुलता जाता है. आपको बताया गया कि मन का ही कर्म, कर्म है. तो जब हम मन को भगवान् में लगाते हैं तो उसकी गन्दगी धुलती जाती है यानी पाप धुलते जाते हैं. हम जितना जितना इसको भगवान् में लगाते हैं, उतनी उतनी इसकी शुद्धि होती जाती है. अब इससे कोई नया कर्म नहीं हो रहा, यानी सांसारिक कर्म, तो आगे कोई कर्मबंधन नहीं लगता. तो एक दिन शुद्ध होते होते ऐसी स्थिति आ जाती है कि यह पूर्ण शुद्ध हो जाता है तब उस क्षण जीव को परमानंद प्राप्त हो जाता है.
'उपासते पुरुषं ये ह्याकामास्ते शुक्रमेतदतिवर्तन्ति धीराः'. (मुण्डकोपनिषद् 3-2-1)
अर्थात् जो मन को किसी मायिक वस्तु में न लगाकर भगवान् की उपासना करता है, वह माया को पार कर लेता है.
गीता में और भी स्पष्ट कहा -
'यत्करोषि यदश्नाशि यज्जुहोषि ददासि यत् ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् ।।'
(गीता 9-27)
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि तू जो कुछ करता है, जो कुछ खाता है, जो कुछ यज्ञादि करता है, दानादि करता है, वह सब कुछ मेरे निमित्त कर अर्थात् मन का लगाव मुझमें हो तो तेरा कर्म अकर्म हो जायेगा और तू कृतार्थ हो जायेगा. वेदव्यास जी ने कहा,
'तत्कर्म हरितोषं यत्' (भागवत 4-29-49)
यानी कि वही कर्म, कर्म है जिससे ईश्वर में प्रीती बढ़े, भगवान् में, गुरु में अनुराग बढे. इसके विपरीत यदि कोई कर्म भगवान् में प्रेम नहीं उत्पन्न करता तो वह, 'श्रम एव हि केवलम्', भागवत कहती है, वह श्रम मात्र ही है. रामायण में भी कहा,
'सो सब कर्म धर्म जरि जाऊ, जहँ न राम पद पंकज भाऊ'.
तो इस प्रकार हम कर्मयोग को समझ गए कि हमको मन से ईश्वर भक्ति यानी ईश्वर में मन को लगाए रखना है, वह भी निरंतर. 'सर्वेषु कालेषु' कहा गीता में. क्योंकि एक क्षण भी अगर मन को हटाया भगवान् से तो वो संसार में नैचुरल जायेगा, फिर उसका कर्मबंधन लग जायेगा. इसलिए निरंतर मन को भगवान् में लगाकर शरीर से कर्म करना है.
अब एक बचा 'कर्मसन्यास'. इसको समझ लें. कर्मसन्यास का अर्थ है कि जिसमें मन से तो कर्मयोगी की भाँति ईश्वर भक्ति हो लेकिन शरीर से वेदाति प्रतिपादित कर्म न हों. ऐसा कर्मसन्यासी भी भक्तियोग के द्वारा अपने निर्दिष्ट लक्ष्य आनंदप्राप्ति कर लेगा. क्योंकि इसमें भी मन के भगवान् में लय होने के कारण अंतःकरण की शुद्धि हो जायेगी और शरीर से कर्म न करने के कारण नया कर्मबंधन नहीं लगेगा.
कर्म धर्म के विषय में केवल उसी कर्म धर्म की निंदा की गई है जिसमें भक्ति न हो, कोरा. भक्तियुक्त कर्म-धर्म अर्थात् कर्मयोग और कर्मसन्यास की सर्वत्र प्रशंसा की गई है. यहाँ हम देख रहे हैं कि कर्मयोगी और कर्मसन्यासी दोनों ही कृतार्थ होते हैं किन्तु फिर भी इन दोनों में कौन सा मार्ग श्रेष्ठ है - यह प्रश्न अवश्य ही उत्पन्न हो सकता है. इसका निराकरण कर लेते हैं.
हमको यह लग सकता है कि कर्मसन्यास में जब बिना कर्म किये ही ईश्वरप्राप्ति हो जाती है तो कर्मयोग करके कर्म करने का व्यर्थ प्रयास क्यों किया जाय? वह कर्म तो व्यर्थ भार वहन करने जैसा होगा. भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को इसका बड़ा सार्थक उत्तर प्रदान किया है -
'संन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयस्करावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्यासातकर्मयोगो विशिष्यते ।।'
(गीता 5-2)
अर्थात् यद्यपि कर्मयोगी और कर्मसन्यासी दोनों कृतार्थ होते हैं परंतु फिर भी कर्मयोग का मार्ग कर्मसन्यास से श्रेष्ठ है. वह श्रेष्ठता क्यों है? भगवान् कह रहे हैं -
'यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्त्वदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किश्चन् ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ।।
यदि ह्यहं न वर्तेय कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ।।
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्या कर्म चेदहम् ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा प्रजाः ।।'
(गीता 3-21 से 24)
संसार का नियम है कि छोटे बड़ों का अनुकरण करते हैं. तो जब कोई व्यक्ति कर्मसन्यासी की नक़ल करेगा तो क्या नक़ल करेगा. केवल बहिरंग नक़ल, क्योंकि कोई मायाधीन अन्तर्यामी तो नहीं कि वह अंतःकरण में झाँक के देख सके. तो वह यह नहीं देख पायेगा कि यह मन से निरंतर भगवान् की भक्ति कर रहा है. चूँकि कर्मसन्यासी शरीर से कोई कर्म नहीं करता तो नकल करने वाला भी इसी आधार पर कर्मों से विरत हो जायेगा और मन को भगवान् में न लगाने के कारण संसार में लगाएगा और फलस्वरुप उच्छृंखल होकर विकर्म अर्थात् पाप में ही प्रवृत्त होगा. ऐसा इसलिए क्योंकि मन को अगर भगवान् में न लगाया तो स्वाभाविक वह संसार में जायेगा. बहिरंग नक़ल से मन को लगाने की तरकीब वह जान ही नहीं सकेगा. इसलिए कर्मसन्यासी के अनुकरण में खतरा है.
इसके विपरीत कर्मयोगी के अनुकरण में भी यद्यपि वह बहिरंग नक़ल ही करेगा लेकिन चूँकि कर्मयोगी शरीर से वेदादि-प्रतिपादित कर्म धर्म भी करता है तो उसके नक़ल से अनुकरणकर्ता भी कम से कम कर्मधर्म में तो प्रवृत्त होगा. कर्म धर्म करते करते सौभाग्यवश किसी महापुरुष के संपर्क में आ गया और उसको वास्तविक तत्वज्ञान हो गया कि इसे ऐसे ईश्वर के समर्पित करना है तो एक दिन उसका कल्याण निश्चित है. कर्मसन्यासी के अनुकरण से विकर्म में प्रवृत्त होकर एक दिन नास्तिक हो जाने का खतरा है और ऐसा होने से उसे कभी भी महापुरुष और संत की बात पर विश्वास ही नहीं होगा.
इसलिए ही अधिकाँश संतों ने और भगवान् ने अपने अवतारों में इसी कर्मयोग को अपनाया है. संत और भगवान् संसार में आकर कर्मयोग के द्वारा हमारे समक्ष आदर्श रखते हैं. भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण से लेकर 99.9% संत हमारे यहाँ कर्मयोगी ही हुए हैं. हमें भी इसी कर्मयोग का आश्रय लेकर भगवतमार्ग पर चलना है. लेकिन एक शर्त ध्यान में रखना है, वह है - 'तेषां नित्यभियुक्तानां', 'यो मां स्मरति नित्यशः', 'एवं सततयुक्ता ये', 'सततं कीर्तयन्तो मां', अर्थात् निरंतर मन को ईश्वर में लगाए रखना है. 'मन यार में, तन कार में' - संक्षेप में यही कर्मयोग का सिद्धांत है.
अगले प्रवचन में हम ज्ञानमार्ग की चर्चा करेंगे और उसके पश्चात कर्म और ज्ञान जिस पर आश्रित हैं, उस 'भक्तिमार्ग' की विस्तारपूर्वक चर्चा करेंगे.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय.. श्रीमत्सदगुरु सरकार की जय...
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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