राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : दसवाँ दिन - 18 सितंबर
(9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : भगवान् से प्रेम करने के भाव'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला में दसवें दिन प्रमुख रुप से भगवान् से प्रेम करने के प्रमुख भावों की व्याख्या की. 'भक्तिरसामृतसिन्धु' ग्रन्थ के एक श्लोक के माध्यम से उन्होंने भक्ति की तीसरी अनिवार्य शर्त का निरुपण किया. इस श्लोक के माध्यम से भक्ति की प्रथम दो शर्तों का वर्णन पूर्व में किया जा चुका था. आइये इस तीसरी शर्त की व्याख्या को समझें.
श्रीपाद रुप गोस्वामी जी ने 'भक्तिरसामृतसिन्धु' में एक श्लोक लिखा है -
'अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् ।
आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं भक्तिरुत्तमा ।।'
इसमें भक्ति की 3 शर्तें बतलाई गई है. पहली है कि हमको भक्ति मार्ग पर चलने के लिए अपने हृदय में मुक्तिपर्यंत तक की कामना को बाहर निकाल देना है. संसार की कोई भी, किसी भी प्रकार की कामना, इच्छा से हमारा हृदय शून्य हो जाय, केवल भगवान् की ही दर्शन, स्पर्श, श्रवण आदि की कामना ही रहे. दूसरी शर्त है कि भक्ति में ज्ञान, कर्म, योग आदि का मिश्रण नहीं होना चाहिए. हमको विशुध्द भक्ति करनी है भगवान् की. ये दो शर्तें आपको विस्तार में समझाई जा चुकी हैं.
इसके आगे तीसरी अनिवार्य शर्त आती है - 'आनुकूल्येन कृष्णनुशीलनं'. अर्थात् श्रीकृष्ण की हमको अनुकूल भाव से उपासना करनी है. दूसरे शब्दों में इसे और एक प्रकार से कह सकते हैं कि हमको भगवान् की भक्ति नहीं करनी है लेकिन भगवान् की ही भक्ति करनी है. क्या मतलब? मतलब यह कि हमको श्रीकृष्ण से रिश्ता जोड़कर उनसे प्रेम करना है. यही अनुकूल्यता है. क्यों? रिश्ता क्यों जोडें?
इसलिए कि हम श्रीकृष्ण को अगर भगवान् मान लेंगे तो प्रेम कर ही नहीं पायेंगे. भगवान् का अर्थ क्या होता है? 'भग्' धातु से 'भगवान्' शब्द बनता है. 'भग्' का अर्थ होता है 'ऐश्वर्य', इसमें 'वान' प्रत्यय लगाने से इसका अर्थ हो जाता है 'ऐश्वर्ययुक्त', 'ऐश्वर्यवान'. तो भगवान् का ऐश्वर्य कैसा है? अनंत ऐश्वर्ययुक्त हैं भगवान्. भगवान् की हर चीज अनंत है, अनलिमिटेड, कोई चीज लिमिटेड नहीं. उनमें अनंत ज्ञान है, अनंत आनंद, अनंत जीवन, अनंत अनंत सब कुछ. साधारण जीव को छोड़ दें, अर्जुन महापुरुष था. उसने कुरुक्षेत्र में जिद किया श्रीकृष्ण से कि हमको अपना विराट वाला स्वरुप दिखला दीजिये एक बार. सखा थे अर्जुन श्रीकृष्ण के. तो श्रीकृष्ण मान गए और अर्जुन को दिव्य दृष्टि दिया कि देख ! क्या हुआ फिर?
यों रुप देखा विराट श्रीकृष्ण का. हजारों-हजार मुख, उनसे निकलती प्रचंड अग्नि ज्वालायें, हजार-हजार हाथ, हजार-हजार आँखें, कोई ओर-छोर नहीं उस रुप का. सकपका गए अर्जुन. थर थर काँपने लगे. पसीने पसीने हो गए. ये दिव्य दृष्टि देने के बाद ये हाल था उनका, अधिकारी जीव थे. कहने लगे कि बस-बस, हमको यह रुप नहीं देखना. मेरे लिए तो आप वही सखा वाले कृष्ण हो जाओ. तो श्रीकृष्ण पुनः उसी सारथी और सखा वाले रुप में आ गए. तो कहने का तात्पर्य यही है कि हम ऐश्वर्ययुक्त श्रीकृष्ण से अनुराग नहीं कर पायेंगे, उनमें अपनापन नहीं हो पायेगा. यह बात संसार में भी हम देखते हैं. एक गरीब भिखारिन की लड़की यह स्वपन नहीं देखती कि मेरी शादी राजकुमार से होगी. अरे कोई हमसे किसी चीज में ही आगे है, मान लो कोई धन में धनवान है हमसे तो ही हम उससे बात करने तक में संकोच करते हैं. यानी भय रहता है, सहज लगाव नहीं रहता. तो ऐसे ही भगवान् को भगवान् मानकर प्यार करने चलेंगे तो प्यार कर नहीं पाएंगे. सदा भय रहेगा. इसलिए भगवान् से प्यार कैसे करना है, इसकी तरकीब बताई है रसिक महापुरुषों ने. क्या है वह तरकीब?
वह तरकीब ये है कि हमको भगवान् से रिश्ता जोड़कर उनसे प्यार करना है. संसार में देखें अगर किसी से हमारा रिश्ता हो जाता है कोई तो सहज अपनापन हो जाता है उससे. करना नहीं पड़ता. जब हमको किसी से कुछ माँगना होता है तो हम अपनों के ही पास जाते हैं. बिना जान पहिचान के व्यक्तियों से हमें कोई ख़ास लगाव नहीं होता. तो भगवान् से तो हमको दिव्यप्रेम चाहिए, उनकी सेवा चाहिए तो बिना रिश्ता जोड़े वह लगाव हो नहीं पायेगा. इसके लिए रसिकों ने पाँच प्रमुख भाव बनाये हैं जिनसे हमें उनसे प्यार करना है. ये पाँच भाव हैं - शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य. इनका ऐसा क्रम इनकी श्रेष्ठता के आधार पर है. इन पाँचों भावों में सबसे नीची कक्षा का भाव है शांत, उससे ऊपर दास्य, उससे ऊपर सख्य, उससे ऊपर वात्सल्य और सबसे ऊपर माधुर्य. आइये इन भावों को संक्षेप में समझते चलते हैं.
सबसे पहला है शांत भाव. यह योगियों का भाव है. शान्त भाव में कैसा प्यार होता है? जैसे राजा और प्रजा के बीच होता है. प्रजा राजा को दूर से देखती है बस. समीप नहीं जाती. ऐसा ही शांत भाव का प्रेम है. इस भाव के प्रेमियों को बैकुण्ठ लोक की प्राप्ति होती है जहाँ वे केवल क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर समाधिस्थ लेटे महाविष्णु और उनके चरण दबाती महालक्ष्मी जी को दूर से ही देखते हैं. इन महाविष्णु जी की कोई लीला भी नहीं होती. इस भाव का रस सबसे नीचे है सबमें. भला प्रजा और राजा के मध्य विशेष आत्मीयता कहाँ होती है? इसलिए रसिक जनों ने प्रायः इस भाव को रस की श्रेणी से निकाल दिया है.
रस का आरम्भ होता है दास्य भाव से. यह चौथा सबसे श्रेष्ठ भाव है. दास्य भाव का अर्थ है भगवान् श्रीकृष्ण को स्वामी और स्वयं को उनका दास मानकर प्रेम करना. श्रीकृष्ण के दास रक्तक, पत्रक आदि इसके उदाहरण हैं. ईश्वरीय जगत का यह दास्य भाव लौकिक जगत के दास्य भाव के सर्वथा विपरीत है. लौकिक अथवा सांसारिक जगतके दास-स्वामी के मध्य स्वार्थ का रिश्ता होता है. दोनों को दूसरे से कुछ न कुछ आशा है. दास को स्वामी से धन चाहिए और स्वामी को दास से सेवा चाहिए. लेकिन ईश्वरीय जगत में दोनोंको एक दूसरे से कुछ नहीं चाहिए. दोनों ही एक दूसरे की प्रसन्नता के लिए अपने आप को न्यौछावर करने को प्रस्तुत रहते हैं. न दास स्वामी से कुछ आशा करता है और न ही दास स्वामी से. दास्य प्रेम का एक उदाहरण श्रीराम जी के चरित्र से देखिये. वे श्री हनुमान जी के दास्य प्रेम से स्वयं को कितना अधिक ऋणी मान रहे हैं कि उसके मारे लज्जा से गड़े हैं. और हनुमान जी के समक्ष जाने मव अपार संकोच कर रहे हैं.
'प्रत्युपकार करौं का तोरा, सन्मुख होई न सकत मन मोरा'.
सुनु सुत तोहिं उरिन मैं नाहीं, देखेउँ करि विचार मन माहीं'.
वे कहते हैं हनुमान जी से कि मैंने सब प्रकार विचार करके देख लिया है, तुम्हारे मुझ पर इतने उपकार हैं कि मैं कभी भी उससे उऋण नहीं हो सकता.
वाल्मिकी-रामायण में तो वे और भी अधिक मार्मिक वचन कहते हैं -
'एकैकस्योपकारस्य प्राणान् दास्यामि ते कये ।
शेषस्येहोपकाराणां भवाम् ऋणिनो वयम् ।।'
अपने प्राण भी दे दूँ तो भी एक ही उपकार से उऋण हो सकूँगा, शेष अनंत उपकारों के लिए तो फिर भी ऋणी ही बना रहूँगा. यह ईश्वरीय जगत के स्वामी के वचन हैं अपने दास के लिए.
हाँ यह बात है कि दास्य धर्म में नियम हैं, मर्यादायें हैं और अधिकार कम है. अतएव रस वैलक्षण्य कम है. शास्त्र कहते हैं,
'सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्यगम्यः'.
दास्यधर्म तो योगियों के लिए भी कठिन है, जनसाधारण की बात क्या है? श्री लक्ष्मण जी कहते हैं,
'सिर बल चलौं धरम अस मोरा, सब ते सेवक धर्म कठोरा'.
जहाँ जहाँ स्वामी के चरण पड़ें, वहाँ वहाँ दास का सर पड़ना चाहिए. ऐसा है दास्य धर्म. दास्य धर्म के प्रेमी प्रेमा भक्ति की कक्षा तक जाते हैं. प्रेम या भक्ति की 10 कक्षाएँ होती हैं उत्तरोत्तर - साधन-सिद्धा, भाव, प्रेमा, स्नेह, मान, प्रणय, राग, अनुराग, भावावेश और महाभाव भक्ति.
दास्य भाव से ऊँचा है सख्य भाव. अर्थात् श्रीकृष्ण को अपना सखा अथवा मित्र मानकर प्रेम करना. इस सख्य भाव में मर्यादायें कम हो जाती है और अधिकार बढ़ जाते हैं. फलस्वरुप रस वैलक्षण्यता में वृद्धि हो जाती है. सख्य भाव के उदाहरण हैं श्रीकृष्ण के अनंत ग्वाल-बाल. ये श्रीकृष्ण को केवल अपना सखा मानते हैं. अपने जैसा. सखा लोग नंदनंदन को श्रीकृष्ण नहीं कहते. कृष्ण भी नहीं कहते. 'कन्हाई', 'कन्हैया', 'कनुआ' कहते हैं. प्रेम से गाली भी देते हैं. और श्रीकृष्ण को भी उनके सम्बोधन मीठे ही लगते हैं. ये सखा लोग सदा यही सोचते हैं कि हम अपने श्याम को कैसे सुख दें? और कृष्ण भी यही सोचते हैं कि मैं अपने सखाओं को कैसे आनंदित करूँ?
वन में गायें चराते हुए खेल खेलते हैं सब सखा मिलकर. श्यामसुन्दर सर्वसमर्थ हैं, ब्रम्ह हैं फिर भी वे खेल में अपने सखाओं से हार जाते हैं. हारने पर सभी सखा लोग मिलकर उनको चिढ़ाते हैं और फिर श्यामसुन्दर रुठ जाते हैं, रुठने पर सब सखा उन्हें मनाते हैं. हारने पर कहते हैं तुम घोड़ा बन जाओ और हम तुम पर सवारी करेंगे. श्रीकृष्ण इन सखाओं के लिए घोड़ा बन जाते हैं और प्रसन्नता से अपने सखाओं को सवारी कराते हैं. श्रीकृष्ण को अपने सखाओं के किसी व्यवहार पर क्रोध नहीं आता है, वे सभी के प्रेम पर बलिहार जाते हैं.
अपने सखाओं के साथ जब भोजन करने बैठते हैं तो सखाओं के मुख तक से उनका जूठन निकालकर खाते हैं, गायें चराते हुए जब सखा लोग थक जाते हैं तो उन्हें अपनी मधुर बाँसुरी सुनाकर उनकी थकान मिटाते हैं. इन सखाओं को प्रेम देते हुए श्रीकृष्ण अपनी भगवत्ता भूल जाते हैं. ऐसे अटपटे श्यामसुन्दर को देखकर ब्रम्हा की बुद्धि भी भ्रमित हो गयी थी कि ये कैसे भगवान् हैं जो इन गँवार ग्वालों से खेल में हार गया और उनके मुख से जूठन निकालकर खाता है? भला ऐसा कैसे होगा भगवान्? तो उनका प्रेम लौकिक बुद्धि से तो सर्वथा परे है.
कहने का तात्पर्य है कि सख्य प्रेम में मर्यादायें संकुचित हो जाती हैं और अधिकारों में वृद्धि हो जाती है. एक सिद्धान्त यहाँ याद रखिये कि जीव जिस भाव से जितनी मात्रा में भगवान् से और गुरु से प्यार करता है, भगवान् और गुरु भी उस जीव से उतनी मात्रा में प्रेम करते हैं. प्रेम में भगवान् अपनी भगवत्ता का त्याग कर देते हैं. एक दास के लिए स्वामी ही रहते हैं और एक सखा के लिए मित्र ही. तभी जीव उनसे प्रेम कर पाटा है.
'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहं'.
गीता का यही सिद्धांत है. अतएव सब कुछ भूलकर हमको श्रीकृष्ण से रिश्ता जोड़कर प्रेम करना चाहिए. प्रेम में एक नियम यह भी ध्यान में रखना है कि वह प्रेम निष्काम और उनके सुख के लिए ही हो. यह नियम सभी भावों में लागू होता है. पाँचों भावों में से शेष दो भावों की व्याख्या अगले प्रवचन में की जायेगी.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय.. श्रीमत्सदगुरुसरकार की जय...
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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राधे राधे ।