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प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय


प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय
देवर्षि नारद के मन में भगवान श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी। इसलिए वे श्रीकृष्ण के सुरक्षित द्वारका में जहां दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, बिदा कर देने पर भी पुन: आकर प्राय: रहा करते थे।नारदजी को द्वारका में अच्छा लगता था। दक्ष का शाप था उन्हें, एक जगह स्थित नहीं रह सकेंगे। लेकिन द्वारका में वे रुकते थे। भगवान का सान्निध्य संतों को आनन्द ही देता है। जीवन में जब भी मौका लगे भगवान का सान्निध्य कर लेना चाहिए।
एक दिन की बात है नारदमुनि वसुदेवजी के यहां पधारे। यहां वसुदेवजी और नारदजी का एक महत्वपूर्ण वार्तालाप होता है। वसुदेवजी ने नारदजी से कहा-संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिए और भगवान की ओर अग्रसर होने वाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपन्च में उलझे हुए दीन-दुखियों के लिए बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मंगलमय होता है।
संत हमारे घर आते रहें यह हमारी गृहस्थी के लिए शुभ होगा। वसुदेव बोले पहले जन्म में मैंने मुक्ति देने वाले भगवान की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिए नहीं कि मुझे मुक्ति मिले। मेरी आराधना का उद्देश्य था कि वे मुझे पुत्र रूप में प्राप्त हों। उस समय मैं भगवान की लीला से मुग्ध हो रहा था। अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिए जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसार से ही पार हो जाऊँ।
नारदजी ने कहा-आपने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास है ऋ षभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद। स्वायम्भुव मनु के एक पुत्र थे प्रियव्रत। प्रियव्रत के आग्नीध्र। आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ। मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिए उन्होंने अवतार ग्रहण किया था। उनके सौ पुत्र थे और सब के सब वेदों के पारदर्शी विद्वान थे। उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत। उभक्ति-स्वामी श्री रामदासजी के शब्दों में कहा जाए तो जो विभक्त नहीं, वही भक्त है। जिसके हृदय में विभाजन है वह जीव है। ईश्वर तथा जीव का विभाजन, पुरुष तथा प्रकृति का विभाजन, गुणों का विभाजन, अपने-पराए, मेरे-तेरे, अच्छे बुरे का विभाजन। भक्त को सब एक दिखाई देता है। विभिन्न नामों में एक ही प्रभु। विभिन्न सम्प्रदायों-सिद्धांतों में एक ही लक्ष्य। कोई झगड़ा नहीं मित्र, शत्रुभाव सब मन का विकार है। भक्त सभी से एक समान प्रेम करता है। परम प्रेम-रूपा भक्ति इस दिशा में, आन्तरिक यात्रा है।
''प्रेम गली अति सांकरी जामे दो न समाय अर्थात- ईश्वर और जगत दोनों नहीं समा सकते। ईश्वर के प्रति प्रेम भक्ति है और जगत के प्रति प्रेम मोह होता है। अमृत स्वरूपा च भक्ति अमृत स्वरूप है। जन्म-मरण के खेल से मुक्ति ही अमृतत्व कहा जा सकता है और ''मोह सब व्याधिन के मूला..मोह से सब व्याधियां आती है।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे

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