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श्रीप्रेम-भक्ति-प्रकाश -5-

श्रीप्रेम-भक्ति-प्रकाश -5-

     जीवात्मा परमात्मा के आश्चर्यमय सगुण रूप को ध्यान में देखता हुआ अपने मन-ही-मन में उनकी शोभा वर्णन करता है-

     अहो ! कैसे सुन्दर भगवान् के चरणारविन्द हैं कि जो नीलमणि के ढेर की भाँति चमकते हुए अनन्त सूर्यों के सदृश प्रकाशित हो रहे हैं । चमकीले नखों से युक्त कोमल-कोमल अँगुलियाँ जिनपर रत्न जड़ित सुवर्ण के नूपुर शोभायमान हैं, जैसे भगवान् के चरण-कमल हैं वैसे ही जानु और जंघादि अंग भी नीलमणि के ढेर की भाँति पीताम्बर के भीतर से चमक रहे हैं । अहो ! सुन्दर चार भुजाएँ कैसी शोभायमान हैं । ऊपर की दोनों भुजाओं में तो शंख और चक्र एवं नीचे की दोनों भुजाओं में गदा और पद्म विराजमान हैं । चारों भुजाओं में केयूर और कड़े आदि सुन्दर-सुन्दर आभूषण शोभित हैं । अहो ! भगवान् का वक्षःस्थल कैसा सुन्दर है जिसके मध्य में श्री लक्ष्मीजी का और भृगुलता का चिह्न विराजमान है तथा नीलकमल के सदृश वर्णवाली भगवान् की ग्रीवा भी कैसी सुन्दर है जिसमें रत्न जड़ित हार और कौस्तुभमणि विराजमान हैं एवं मोतियों की और वैजयन्ती तथा सुवर्ण की और भाँति-भाँति के पुष्पों की मालाएँ सुशोभित हैं । सुन्दर ठोड़ी, लाल ओष्ठ और भगवान् की अतिशय सुन्दर नासिका है जिसके अग्रभाग में मोती विराजमान है । भगवान् के दोनों नेत्र कमलपत्र के समान विशाल और नीलकमल के पुष्प की भाँति खिले हुए हैं । कानों में रत्न जड़ित सुन्दर मकराकृत कुण्डल और ललाटपर श्री धारी तिलक एवं शीशपर रत्न जड़ित किरीट ( मुकुट ) शोभायमान है । अहो ! भगवान् का मुखारविन्द पूर्णिमा के चन्द्रमा की भाँति गोल-गोल कैसा मनोहर है जिसके चारों ओर सूर्य के सदृश किरणें देदीप्यमान हैं, जिनके प्रकाश से मुकुटादि सम्पूर्ण भूषणों के रत्न चमक रहे हैं ? अहो ! आज मैं धन्य हूँ, धन्य हूँ कि जो मन्द-मन्द हँसते हुए आनन्दमूर्ति हरि भगवान् का दर्शन कर रहा हूँ ।। ८ ।।

     भगवान् स्नान करके पधारे हैं । वस्त्र धारण कर रखे हैं और यज्ञोपवीत सुशोभित है । इस प्रकार आनन्द में विह्वल हुआ जीवात्मा ध्यान में अपने सम्मुख सवा हाथ की दूरीपर बारह वर्ष की सुकुमार अवस्था के रूप में भूमि से सवा हाथ ऊँचे आकाश में विराजमान परमेश्वर को देखता हुआ उनकी मानसिक पूजा करता है ।
जय श्री कृष्ण

'तत्त्वचिन्तामणि' पुस्तक से, पुस्तक कोड- 683, विषय-श्रीप्रेम-भक्ति-प्रकाश, पृष्ठ-संख्या- ३८-३९, गीताप्रेस गोरखपुर

ब्रह्मलीन परम श्रद्धेय श्री जयदयाल जी गोयन्दका सेठजी

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