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राधे राधे

दबे पाँव चुपचाप राधा जी की एक सखी राधा जी के पास गई और अतिहिं मद्धिम स्वर में उनके कान में फुसफुसा कर बोली-
"प्रिय सखी अब मान भी जाओ, क्यों इतना सता रही हो उन्हें, देखो न क्या हाल हो गया है"
आनन्दित राधा जी नेत्र बंद किये मन ही मन इस मनभावन प्रसंग से प्रफुल्लित हो रहीं हैं।उनके अधरों पर एक मंद मृदुल स्मित खेल गई।
प्रातःकाल से ही श्यामसुंदर राधा जी के केशों को सवाँर रहे हैं,किन्तु केश हैं कि सँवारने में ही नहीं आ रहे हैं। प्रातः से संझा हो गई है, श्यामसुंदर श्वेद-बिन्दुओं से तरबतर हैं, किन्तु केश और उलझते ही जा रहें हैं।
"उठो सखी कंघी उनके हाथ से ले लो और स्वयं अपने केश सुलझाओ"
"नहीं"- मग्न अतिरेक प्रेम रस में डूबी राधा जी बोलीं-"ये इतने धैर्य प्रेम व अपने कोमल हाथों से मेरे केश सुलझा रहें हैं....काश! ये क्षण चिर स्थायी बन जाये।मेरी अंतरंग अभिलाषा यही है सखी कि मेरे केश सारी उम्र उलझे रहें और ये सुलझाते रहें"
भावविभोर राधा जी के नेत्रों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित हो उठी-" काश! ये केश और उलझ जायें और श्यामसुंदर अपने नर्म कोमल हाथों व प्रेम परिपूर्ण हृदय से इन्हें सुलझाते रहें, सुलझाते रहें, उम्र भर न सुलझे मेरे श्यामसुंदर से ये केश"
सब दुःखों की औषधि है प्रभु की लीलाओं का चिंतन। क्यों उलझे सांसारिक बंधनों में-उलझना ही है तो उलझे नन्हें नटखट कान्हा की नन्ही नन्ही घुघँराली अलकों में।श्यामसुंदर की चितचोर चितवन में, अंत:स्पर्शी लीलाओं मे। महक उठेगा जीवन। संगीत की आलौकिक स्वर लहरियों के साथ एक दिव्य आभा का प्रवेश होगा जीवन में।
(डाॅ.मँजु गुप्ता)

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