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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 122से आगे .....
चौपाई :
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा। ब्यास समास स्वमति अनुरूपा।।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी। राम भजिअ सब काज बिसारी।।
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही। मोहि से सठ पर ममता जाही।।
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा। नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।।
पूँछिहु राम कथा अति पावनि। सुक सनकादि संभु मन भावनि।।
सत संगति दुर्लभ संसारा। निमिष दंड भरि एकउ बारा।।
देखु गरुड़ निज हृदयँ बिचारी। मैं रघुबीर भजन अधिकारी।।
सकुनाधम सब भाँति अपावन। प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन।।
भावार्थ: हे नाथ ! मैंने श्रीहरि का चरित्र अपनी बुद्धिके अनुसार कहीं विस्तारसे और कहीं संक्षेपसे कहा। हे सर्पोंके शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियोंका यही सिंद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीरामजीका भजन करना चाहिये।।प्रभु श्रीरघुनाथजीको छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाय, जिनका मुझ-जैसे मूर्खपर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ ! आप विज्ञानरूप हैं, आपको मोह नहीं है। आपने तो मुझपर बड़ी कृपा की है।।जो आपने मुझे से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजीके मनको प्रिय लगनेवाली अति पवित्र रामकथा पूछी। संसारमें घड़ीभरका अथवा पलभरका एक-बारका भी सत्संग दुर्लभ है।।हे गरुड़जी ! अपने हृदय में विचार कर देखिये, क्या मैं भी श्रीरामजी के भजनका अधिकारी हूँ ? पक्षियोंमें सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ। परंतु ऐसा होनेपर भी प्रभुने मुझको सारे जगत् को पवित्र करनेवाला प्रसिद्ध कर दिया। [अथवा प्रभुने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया]।।
दोहा :
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।।123क।।
नाथ जथामति भाषेउँ राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक थाह कि पावइ कोइ।।123ख।।
भावार्थ: यद्यपि मैं सब प्रकार से हीन (नीच) हूँ, तो भी मैं आज धन्य हूँ, अत्यन्त धन्य हूँ, जो श्रीरामजीने मुझे अपना निज जन जानकर संत-समागम दिया (आपसे मेरी भेंट करायी)।।हे नाथ ! मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपा नहीं रक्खा। [फिर भी] श्रीरघुवीरके चरित्र समुद्रके समान हैं; क्या उनकी कोई थाह पा सकता है ?।।123(क -ख)
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 123, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।