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सहचरी भाग 6

सहचरी भाग 6
राधमोहन सदैव अपनी दासियों की रुचि के अनुकूल रहकर उनके मन की साध पुजाते रहते हैं यह देखकर आनंद के रंग से भरी हुई सखियां फूली नहीं समातीं। इन सब के एक मात्र जीवन दोनों वृन्‍दावन-चन्‍द्र हैं।
फूली अंग ने मात है भरीं रंग आनंद।
जीवन सबकै एक ही विवि वृन्‍दावन चंद।

सखियों की प्रीति का चौथा भाव आत्‍मवत् भाव है। मनीषियों ने आत्‍मा को सबसे प्रिय माना है। अन्‍य सब पदार्थों में आत्‍मा के कारण प्रियता रही हुई है। सखियों की आत्‍मा और युगल में कोई अन्‍तर नहीं है। इनके अद्भुत प्रेम ने ही इनको इस स्थिति में ला दिया है। हित अनूप जी बतलाते हैं कि ‘प्रेम की प्रतीति का प्रताप ही ऐसा है कि प्रियतम आपमय हो जाता है और आप प्रियतममय हो जाता है, दोनों में कोई भेद नहीं रहता। जहां अपना सम्‍पूर्ण सुख होता है वहां प्रियतम के मोद की प्रतीति होती है और जहां प्रियतम का सम्‍पूर्ण सुख होता है वहां अपनी सुख- रीति होती है। दोनों के बीच में अपना पराया करने का कोई कारण नहीं रह जाता। अपनपे प्रियतम के साथ अभिन्न बनते ही अपने सखा और प्रियतम के सुख में भेद नहीं रहेगा।'
आप मई प्रीतम जहाँ औ प्रीतम मय आप।
रहयौ न भेद कोऊ कहूँ प्रेम प्रतीत प्रताप।।
अपनौ सुख नख-सिख जहाँ प्रीतम मोद प्रतीति।
प्रीतम सुख नख-सिख जहाँ है अपनी सुख-रीति।।
अपुन पराई करनि कों कारन रहयौ न कोइ।
तत्सुख कहौं तौ तत्सुखै स्वसुख कहौं तो सोइ।।

सखियों के तत्सुख और स्वसुख में कोई भेद नहीं है। हित्तप्रभु अपने सहज सखी-स्वरूप से श्यामाश्याम के परम सुख का दर्शन करके कहते हैं कि ‘आनंद में निमग्न दोनों प्रियतम डगमगाती चाल से वृन्दावन की सुन्दर एवं सघन कुंज-गली में विहार कर रहे हैं। यह दोनों लाल-ललना परस्पर मिलकर मेरे मन को शीतल करते हैं।’
पग डगमगत चलत बन बिहरत रुचिर कुंज घन खोर।
हित हरिवंश लाल-ललना मिलि हियौ सिरावत मोर।।

यहाँ पर लाल-ललना के सुख और हितजी के सुख में कोई अन्तर दिखलाई नहीं पड़ता और यहीं सखियों के आत्मवत् भाव का स्वरूप है। सखियों के सुखानुभव की प्रक्रिया में विलक्षणता यह है कि यह श्यामा और श्याम दोनों के साथ सहज रूप से एकात्म-भाव रखती हैं। श्यामसुन्दर के मन से मन मिलाकर यह प्रिया-चरण-माधुरी का आस्वाद करती हैं एवं अपनी स्वामिनी के मन से मन मिलाकर यह उनके प्रीति-परवश प्रियतम का लालन करती रहती हैं। ‘इन परम प्रेमी युगल के अद्भुत मनों को अपने एक मन में लेकर सहचरी-गण इनकी आसक्ति का अबाध उपभोग करती हैं और पिय-प्यारी के सुख को दृष्टि में रखकर उनकी टहल करती रहती हैं।' 
टहल लिये पिय प्यारी आगे छिनपल कहूँ न जाहीं।
दोऊ मन कौं लिये हिये में कुंज महल विलसाहीं।। 
जयजय श्यामाश्याम । क्रमशः ...

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