माधुर्य रस या माधुर्य प्रेम...
श्री कृष्ण की कृपा प्राप्त करने के अनेक साधन तथा विधियाँ हैं।
जब हम विभिन्न विधियों का अध्ययन तटस्थ हो कर करते हैं तो हम समझ सकते हैं कि प्रेम की उच्च तथा निम्न कोटियाँ होती हैं।
एक के बाद एक रसों में अधिकाधिक प्रेम का अनुभव होता है किन्तु सर्वोच्च स्वाद वाला प्रेम तो माधुर्य रस में ही प्रकट होता है।
गुणों में वृद्धि के साथ-साथ रस के स्वाद में भी वृद्धि होती जाती है।
अतः शान्त रस , दास्य रस , सख्य रस तथा वात्सल्य रस के सारे गुण माधुर्य रस में प्रकट होते हैं।
श्रीमद् भागवतम में कहा गया है कि:- “भगवान कृष्ण माधुर्य रस में भक्ति का आदान-प्रदान समान अनुपात में नहीं कर पाते, अतएव वे ऐसे भक्तों के सदैव ऋणी रहते हैं”।
यद्यपि कृष्ण का अप्रितम सोंदर्य भगवत्प्रेम का सर्वोच्च माधुर्य है, किन्तु जब वे गोपियों के बीच में होते हैं तब उनका माधुर्य असीम रूप से बढ जाता है, फलस्वरूप गोपियों के साथ कृष्ण द्वारा प्रेम का आदान-प्रदान भगवत्प्रेम की चरम पूर्णता है।
माधुर्य रस में कृष्ण के प्रीति निष्ठा, उनकी सेवा, सखा का असंकोच भाव तथा पालन की भावना, इन सबकी घनिष्ठता की वृद्धि हो जाती है।
माधुर्य रस में भक्त भगवान को अपना शरीर अर्पित कर देता है।
अतः इस रस में पांचो रसो के दिव्य गुण उपस्थित रहते हैं।
इस तरह माधुर्य रस में भक्तों के सारे भाव घुलमिल जाते हैं इसका गाढा स्वाद निश्चित रूप से अद्भुत होता है।
माधुर्य रस ही सर्वश्रेष्ठ रस है, माधुर्य भक्तों के उदाहरण: वृदावन की गोपियाँ , द्वारका की पटरानियाँ तथा वैकुण्ठ की लक्ष्मी हैं।
माधुर्य प्रेम में श्री राधाजी द्वारा कहे गए कुछ उदगार:-
"मुझे अपनी खुद की पीड़ा की चिंता नही है, मैं तो कृष्ण के सुख की ही कामना करती हूँ, क्योंकि उनका सुख ही मेरे जीवन का लक्ष्य है।
किन्तु यदि वे मुझे पीड़ा देने में ही महान सुख का अनुभव करते हैं, तो वह पीड़ा मेरा सबसे श्रेष्ठ सुख है।
यदि कृष्ण किसी अन्य स्त्री के सोंदर्य से आकृष्ट हो कर उसके साथ रमण करना चाहते है, किन्तु दु: खी रहते हैं कि वे उसे पा नहीं सकते , तो मैं उसके पावों पर गिर कर उसका हाथ पकड़ कर कृष्ण के पास लाती हूँ और उनकी प्रसन्नता के लिए उसे कृष्ण के साथ क्रीडा करने के लिए छोड़ देती हूँ।
यदि मुझसे ईर्ष्या करने वाली कोई गोपी कृष्ण को तुष्ट करती है और कृष्ण उसे चाहने लगते हैं, तो मैं उसके घर जाने में नही हिचकूंगी और उसकी दासी बन जाऊंगी , क्योंकि तब मेरा सुख जागृत हो उठेगा।" (चैतन्यचरितामृत)
गोपियाँ सोचती है :- मेरा यह शरीर कृष्ण को अर्पित है , इस शरीर को देख कर तथा इसका स्पर्श करके कृष्ण को आनन्द मिलता है, इसलिए वे अपने शरीर को स्वच्छ करती एवं सजाती हैं।
गोपियों को देख कर कृष्ण को जितना आनन्द मिलता है, उससे करोड़ों गुना आनन्द गोपियों को मिलता है।
गोपियाँ सोचती हैं, हमें देख कर कृष्ण को इतना सुख मिला है, इस विचार से उनके मुखों तथा शरीरों की पूर्णता तथा सुन्दरता बढ जाती है।
गोपियों की सुन्दरता देख कर , भगवान कृष्ण की सुन्दरता बढ जाती है।
और गोपियाँ कृष्ण की सुन्दरता को जितना अधिक निहारती हैं , उतना ही अधिक उनका सौन्दर्य बढ जाता है।
इस प्रकार उनके बीच होड़ लग जाती है, जिसमें कोई भी अपनी हार स्वीकार नही करता।
गोपियों का प्रेम भगवान कृष्ण के माधुर्य का पोषण करता है बदले में यह माधुर्य उनके प्रेम को वर्धित करता है।
गोपियों में अपनी खुद की इन्द्रिय-तृप्ति की रंचमात्र भी इच्छा नहीं है।
उनकी एकमात्र इच्छा कृष्ण को आनन्द देने की होती है और इसी कारण वे उनसे मिलती हैं।
गोपियाँ कृष्ण के साथ कभी भी स्वयं भोग करना नहीं चाहती।
जब गोपियाँ श्री राधा और श्री कृष्ण को उनकी दिव्य लीलाओं में प्रवृत करने का काम करती हैं तो उनका सुख करोड़ गुणा बढ जाता है।
गोपियों के प्रेम व्यापार में कृष्ण के प्रति श्रीमती राधारानी का प्रेम सर्वोपरि है और कृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं।
गोपियों का माधुर्य प्रेम सर्वोच्च भक्ति है, जो भक्ति की अन्य सारी विधियों को पार कर जाती है, इसलिए भगवान कृष्ण को कहना पड़ा:- “हे गोपियों, मैं तुम लोगों का ऋण नहीं उतार सकता, निस्सन्देह, मैं तुम लोगों का सदैव ऋणी हूँ।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें
राधे राधे ।