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नित्य विहार भाग 2

नित्य विहार भाग 2
भजन के बल से यदि इन्द्रियों के हाथों भाव का स्फुरण होले लगे तो सर्व गुणों से पूर्ण नित्य-विहार प्रत्यक्ष हो जाय और हृदय में नित्य नूतन चाव बढ़ता रहे।'
इन्द्री अपगुन त्यागि जो भजन माहिं ठहराँई।
जहँ-तहँ सुख विलसत फिरै तौ कहुँ टोटौ नाहिं।।
भजन बल इन्द्री हाथ जो फुकरबौ करिहै भाव।
सब गुन वस्तु विलोकी है नव-नव नित चित्त चाव।।

इस बात को अणिक स्पष्ट करते हुए वे कहते हैं ‘प्रेम का मार्ग इतना विकट है कि उस पर दौड़ कर नहीं चला जा सकता। इस पर चलने के लिये तन और मन को समेट कर बहुत जमा कर पैर रखने होते हैं। रसिक-नरेश के मार्ग पर चलना नितांत विकट है। जो अपने तन और मन को उबाल कर, ठंडा करके, छान डालते हैं वही इस मार्ग पर चल पाते हैं, अन्य लोग तो केवल बकवास करते हैं। जिस सथान पर मन की भी गति नहीं होती वहाँ शरीर को लेकर निकलना होता है। रसिक आचार्यों (हरिवंश जु - स्वामी हरिदास जु आदि) के चरणों का बल मिलने पर ही इस प्रकार चला जा सकता है।’
कठिन पहुँचनौ प्रेम करै पंथ न निकस्यौ धाइ।
तन मन दसा समेटि गाढ़े धरने पाँइ।।
मारग रसिक नरेस के निपट विकट है चाल।
तन-मन औंटि, सिराय, गरि वृथा बजादत गाल।।
जामें मन की गति नहीं तामें काढ़ै गात।
व्यास सुवन पद पाइ बल इहि विधि निकर्यौ जात।।

उपासना के मार्ग से चलकर साधक का मन जब नित्य प्रेम-विहार के आनंदोल्लास में प्रविष्ट होता है तब उसकी सब क्रियायें लोक-बाह्य बन जाती हैं। उसकी हृदय-ग्रन्थियों का भेदन हो जाता है और उसके संपूर्ण सेशय छिन्न हो जाते हैं। उसकी उस समय की सिथति का वर्णन करते हुए सेवक जी कहते हैं, ‘जिस पर प्रधान सखियों की कृपा होती है, वह राधा-हरि के नित्य विहार का दर्शन पुलकित शरीर से करता रहता है और उसके नेत्रों से आनंद की झड़ी लगी रहती है। वह कभी रोता है, कभी आनंदोल्लास में गान करता है और कभी अट्टहास करता है। वह क्षण-क्षण में श्यामाश्याम के साथ विहरण करता है, क्षण-क्षण में उसका अभंग यश-गान करता है। नित्य किशोर के दर्शन से उसकी रति नित्य नवीन बनती रहती है और व युगल की आलस्य भरी प्रातः कालीन छवि का नित्य दर्शन करता रहता है। सघन कुंज के छिद्रों से युगल की अद्भुत तन-कांति को देखकर उसके नेत्र तृप्त नहीं होते।’ क्रमशः 

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