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गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित " जानकी मंगल " (गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)

II सीताराम II

गोस्वामी तुलसीदासजी विरचित
" जानकी मंगल "
(गीताप्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)
पोस्ट संख्या - २७

धनुर्भङ्ग

देखि सपुर परिवार जनक हिय हारेउ ।
नृप समाज जनु तुहिन बनज बन मारेउ ।।८९।।
कौसिक जनकहि कहेउ देहु अनुसासन ।
देखि भानु कुल भानु इसानु सरासन ।।९०।।

पुरवासी एवं परिवार सहित महाराज जनक यह देखकर हृदयमें हार गये अर्थात् निराश हो गए और राजाओंके समाजरूपी कमलवनको तो मानो पाला मार गया ।८९। (तब) कौशिक मुनिने महाराज जनकसे कहा – ‘आप आज्ञा दीजिये । सूर्यकुलके सूर्य श्रीरामचन्द्रजी शङ्करजीके धनुषको देखें’ ।९०।

मुनिबर तुम्हरें बचन मेरु महि डोलहिं ।
तदपि उचित आचरत पाँच भाल बोलहिं ।।९१।।
बानु बानु जिमी गयउ गवहिं दसकंधरु ।
को अवनी तल इन सम बीर धुरंधरु ।।९२।।

(महाराज जनकने कहा -) हे मुनिवर ! आपके वचनसे पर्वत और पृथ्वी भी डोल सकते हैं; तो भी उचित आचरण करनेसे सबलोग प्रशंसा करते हैं । (तात्पर्य यह कि यद्यपि आपके आशीर्वादसे श्रीरामके लिये यह धनुष तोडना कोई बड़ी बात नहीं है, फिर भी जैसे वस्तुस्थिति है, उसे देखते हुए तो ऐसा होना असम्भव ही जान पड़ता है, क्योंकि देखिये, इस धनुषको देखकर) बाणासुर बाणके समान भाग गया और रावण भी चुपकेसे (अपने घर) चला गया । भला इनके समान धुरंधर वीर पृथ्वीतलमें कौन है ।९१-९२। ....................... क्रमशः

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