सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

राधे राधे.. नेपाल प्रवचन सारांश : चौथा दिन - 12 सितंबर (9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल) प्रवचन विषय : 'भगवद्-ज्ञान कैसे होगा?

राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : चौथा दिन - 12 सितंबर
(9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : 'भगवद्-ज्ञान कैसे होगा?
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने आध्यात्मिक प्रवचन श्रृंखला के चौथे दिन अपने उदबोधन में बताया कि भगवान् को जानने के लिए एकमात्र भगवत्कृपा ही यथेष्ट है. बिना भगवत्कृपा के कोई भी उनको जान नहीं सकता. साथ ही यह भी व्याख्या की गई कि जब तक भगवान् को जान नहीं लिया जायेगा, तब तक विश्व का प्रत्येक जीव नास्तिक ही है. आइये चौथे दिन की व्याख्या को गद्य रुप में समझें.
कल तक की व्याख्या में हमने कुछ प्रमुख बातें समझीं. एक तो यह कि अपार भगवत्कृपा से यह मनुष्य देह हमको प्राप्त हुआ है. इसे भगवान् को प्राप्त करने के लिए ही प्रदान किया गया है. माया के अधीन होकर हमने अपना जीवात्मा वाला वास्तविक स्वरुप भुला दिया और अपने को शरीर मान लिया. यहीं से समस्त दुःख से हम घिर गए. शरीर मानने का भ्रम अनादिकालीन है. आगे हमने जाना कि हमारा यानी जीवात्मा का लक्ष्य आनंदप्राप्ति है. इसका कारण बताया गया कि चूँकि हम भगवान् के अंश हैं और भगवान् का एक नाम आनंद है तो स्वाभाविक रुप से हमको आनंद की ही चाह होती है. कोई भी जीव एक क्षण को कर्म किये बिना नहीं रह सकता और वह जो कुछ भी करता है, एकमात्र आनंद पाने के लिए ही करता है. अतएव Indirectly भगवान् को पाने का ही अनवरत विधान करता है. इसी आधार पर आपको बताया गया कि विश्व का प्रत्येक जीव निरंतर आस्तिक है. श्री वाल्मिकी जी का उद्धरण भी आपको बताया गया -
'लोके न हि विद्येत यो न राममनुव्रतः.'
अर्थात् विश्व में कोई भी ऐसा चर-अचर नहीं है जो भगवान् का भक्त न हो.
अब इसके आगे ये कहा गया था कि विश्व का प्रत्येक जीव नास्तिक है और कोई भी कोटि कल्प प्रयत्न करके भी आस्तिक नहीं हो सकता. इसी को सिद्ध करते हैं.
आस्तिक किसको कहेंगे? जो भगवान् को माने, उस पर विश्वास करे, और निरंतर करे, प्लस दृढ़तापूर्वक करे. ये मानना क्या है? और विश्वास कब होता है किसी पर? मानना, जानने के बाद होता है. विश्वास मानने के बाद होता है. तो क्या हम भगवान् को जानते हैं? सामान्य रुप से तो हमको लगता है कि हम जानते हैं. क्योंकि यों तो गाँव के घसियारे भी भगवान् की, शास्त्रों की बात करते मिल जाते हैं. लेकिन ये जानना, जानना नहीं है.
वेद कह रहा है उस भगवान् को कोई नहीं जानता. क्यों नहीं जानता? क्योंकि भगवान् का ज्ञान होगा किससे? वेद से. वेद ही हिन्दू धर्म में सबसे बड़ी अथॉरिटी है. वेद किसी ने लिखा नहीं. ये भगवान् की सहज श्वास से प्रकट हो गए. इसलिए ही वेद अपौरुषेय कहे गए. एक दिन लिखे गए ऐसा नहीं है. अनाद्यनंत सनातन शाश्वत हैं वेद. भगवान् की वाणी है, भगवत्स्वरूप है. वेद में क्या लिखा है इसको सामान्य मायाधीन मनुष्य नहीं समझ सकता. कारण? क्योंकि हमारे पास जानने का जो साधन है - मन, बुद्धि आदि वो सब मायिक है. मायिक गुणों से युक्त है. वो केवल माया के एरिया की चीजें ग्रहण कर सकती है, सो भी पूरा पूरा नहीं.
इंद्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः ।।
महतः परामव्यक्तकात पुरुषः परः ।
पुरुषान्न परं किंचित्सा काष्ठा सा परा सा गतिः ।।
(कठोपनिषद् 1-3-10, 11)
वेद दिव्य हैं, भगवान् की दिव्य वाणी है. यह मायिक इन्द्रिय, मन, बुद्धि से परे की चीज है. कौन समझेगा वेद को? वेद ने ही उत्तर दिया -
'आचार्यवान् पुरुषो हि वेद'
भगवान् और उन्हें प्राप्त कर लेने वाले महापुरुष ही वेद का वास्तविक रहस्य समझ और समझा सकते हैं, क्योंकि वे मायातीत हैं. तो वेद हमारे किसी काम के नहीं हैं और दूसरा साधन भगवान् को जानने का है नही. तो इस प्रकार भगवान् को जाना नहीं जा सकता.
'नावेदविन्मनुते तं बृहन्तम्'
अर्थात् जो वेद को नहीं जानता, वह भगवान् को नहीं जान सकता.
जब जाना नहीं जायेगा तो उसको हम मान नहीं पायेंगे. बिना माने किसी पर विश्वास भी नहीं होता. बिना विश्वास के उस पर श्रद्धा कैसे उत्पन्न होगी? पुनः वह दृढ़ कैसे रहेगी निरंतर? इस तरह इस सिद्धांत से विश्व का प्रत्येक जीव नास्तिक सिद्ध हुआ.
इसमें आश्चर्य की बात भी नहीं है. अपनी प्रैक्टिकल जिंदगी में हम यही तो अनुभव करते हैं. क्या हमको भगवान् पर विश्वास है? ऐसा विश्वास है जो थोड़ी सी प्रतिकूलता आने पर, सो भी भगवान् हमारे बुरे कर्मों के कारण प्रारब्ध रुप में प्रदान करते हैं, उसमें भी हम भगवान् के ही विरुद्ध हो जाते हैं. हमारे प्रारब्ध के कारण थोड़ा संसार हमसे छिन गया, तुरंत भगवान् पर धावा बोलते हैं कि भगवान् ने हमारे साथ बुरा किया. जितना हमको संसार प्यारा लगता है, उतने भगवान् नहीं लगते. भगवान् की पूजा करके हम उनसे कूड़ा-कबाड़ा संसार ही माँगते हैं. तो यह आस्तिकता का लक्षण नहीं है. भगवान् को जाने बिना वह दृढ विश्वास आएगा नहीं, और तब तक कोई आस्तिक नहीं बन सकता. इधर वेद ने कह दिया कि भगवान् जाने नहीं जा सकते.
यहाँ हमारे मन में एक प्रश्न कौंध सकता है. क्या? ये वेद का कोटेशन तो दिया गया कि भगवान् जाने नहीं जा सकते. हमने मान लिया कि ठीक है नहीं जान सकते. तो ये तुलसी, सूर, मीरा, कबीर, नानक, तुकाराम आदि अनंत संतों का नाम जो हम सुनते हैं, इनके विषय में तो डिक्लेयर्ड है कि इन्होंने तो भगवान् को जाना है. जाना क्या, उन्हें प्राप्त किया है. तो ऐसा कैसे? यह तो विरोधाभास वाली बात हो गई. कैसे हो गया इन्हें ज्ञान?
तो इसका उत्तर वेदों ने ही दिया है. ध्यान दीजिये,
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन ।
यमेषैव वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनुङ्स्वाम् ।।
(कठोपनिषद् 1-2-23)
तमक्रतुः पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मनः ।
(कठोपनिषद् 1-2-20)
यह कह रहा है कि यद्यपि भगवान् इन्द्रिय, मन, बुद्धि से परे का तत्व है किन्तु वह भगवान् जिस पर कृपा कर दिव्य शक्ति प्रदान कर देता है, वह बड़भागी जीव भगवान् को पूर्ण रुप से जान लेता है.
तत्प्रसादात्परां शांतिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् । (गीता 18-62)
अर्जुन भी तो यही कहते हैं श्रीकृष्ण से. जब उनको श्रीकृष्ण द्वारा दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ और अज्ञानान्धकार नष्ट हुआ -
नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्ध्वा त्वप्रसादान्मयाच्युत् । (गीता 18-73)
हे श्रीकृष्ण ! आपकी कृपा से मेरा अज्ञान सदा सदा के लिए चला गया, मेरा मोह नष्ट हो गया.
अथापि ते देव पदाम्बुजद्वयप्रसादलेशानुगृहीत एव हि ।
जानाति तत्त्वं भगवन् महिम्नो न चान्य एकोपि चिरं विचिन्वन् ।।
(भागवत् 10-14-29)
उस भगवान् को कोटि प्रयत्न करके भी कोई नहीं समझ सकता. एकमात्र उसकी कृपा से ही उसको जाना, समझा और प्राप्त किया जा सकता है. रामायण में भी इसी की पुष्टि हुई है -
सोई जानइ जेहि देहु जनाई । जानत तुमहिं तुमहिं है जाई ।।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई । जानि न जाइ राम प्रभुताई ।।
माया ने ही हमको ईश्वर से दूर किया हुआ है. माया जब तक रहेगी, हमको ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हो सकता. ये माया भगवान् की शक्ति है. अतः भगवान् ही कृपा करके इसे जीव पर से हटा सकते हैं.
सो दासी रघुबीर की समुझि मिथ्या सोपि ।
छुटै न राम कृपा बिनु नाथ कहौं पद रोपि ।।
महापुरुषों के सँग द्वारा भी भगवान् का ज्ञान हो सकता है. किन्तु महापुरुषों के सँग के लिए भी भगवत्कृपा की ही अपेक्षा कही गई. रामायण कहती है -
बिनु सत्संग विवेक न होई । राम कृपा बिनु सुलभ न सोई ।।
अब मोहिं भा भरोस हनुमन्ता । बिनु हरि कृपा मिलहिं नहिं सन्ता ।।
सन्त विशुद्ध मिलहिं पुनि तेही । राम कृपा करि चितवति जेही ।।
इस प्रकार हमने वेद से लेकर रामायण तक के प्रमाण देखे कि भगवान् की कृपा से ही भगवान् को जाना जायेगा. इसके आगे हमको एक शंका होगी कि तब तो सब कुछ भगवान् पर ही निर्भर है. जीव को कुछ करना ही नहीं. भगवान् जब कृपा करेंगे तो सब अपने आप होगा. ऐसा मानकर हम भाग्य के भरोसे बैठ जाते हैं. जबकि हम भाग्य तत्व को सही-सही समझते भी नहीं हैं. थोड़ा संक्षेप में हम इस तत्व की चर्चा करेंगे. उसके आगे फिर भगवान् को जानने के मार्गों की व्याख्या की जायेगी.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय... श्रीमत्सदगुरु सरकार की जय....
(For more details, please like the official Facebook Page of Sushri Gopikeshwari Deviji, that is 'Shri Kripalu Bhaktidhara Prachar Samiti'.
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे .....

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 116से आगे ..... चौपाई : सुनहु...

🌼 युगल सरकार की आरती 🌼

 आरती माधुरी                      पद संख्या २              युगल सरकार की  आरती  आरती प्रीतम , प्यारी की , कि बनवारी नथवारी की ।         दुहुँन सिर कनक - मुकुट झलकै ,                दुहुँन श्रुति कुंडल भल हलकै ,                        दुहुँन दृग प्रेम - सुधा छलकै , चसीले बैन , रसीले नैन , गँसीले सैन ,                        दुहुँन मैनन मनहारी की । दुहुँनि दृग - चितवनि पर वारी ,           दुहुँनि लट - लटकनि छवि न्यारी ,                  दुहुँनि भौं - मटकनि अति प्यारी , रसन मुखपान , हँसन मुसकान , दशन - दमकान ,                         ...

श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 113से आगे .....

सभी स्नेही मानसप्रेमी साधकजनों को हमारी स्नेहमयी राम राम | जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 113से आगे ..... चौपाई : काल क...