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राधे राधे.. नेपाल प्रवचन सारांश : पाँचवाँ दिन - 13 सितंबर (9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल) प्रवचन विषय : 'कोरे कर्मधर्म से भगवत्प्राप्ति नहीं होगी'

राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : पाँचवाँ दिन - 13 सितंबर
(9 से 23 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)

प्रवचन विषय : 'कोरे कर्मधर्म से भगवत्प्राप्ति नहीं होगी'
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने दार्शनिक प्रवचन श्रृंखला के पाँचवें दिन 'भाग्य' तत्व के बारे में संक्षेप में समझाया. इसके आगे उन्होंने भगवान् को प्राप्त करने के प्रमुख मार्गों में से प्रथम 'कर्म मार्ग' की विस्तार से व्याख्या की. कर्म मार्ग की व्याख्या में उन्होंने इसके दो रूपों को सामने रखा. एक में कर्म मार्ग की निंदा की गई तो दूसरे में प्रशंसा की गई. इस तरह दोनों ही पक्षों का समन्वय वेदों-शास्त्रों आदि के प्रमाणों से किया गया. आइये हम इसे गद्य शैली में समझें.
कल जब ये समझाया गया कि भगवान् की कृपा से ही हम भगवान् को जानेंगे तो हमारे मन में एक शंका आई कि तब तो सब कुछ भगवान् ही करेंगे, हमारा तो कुछ कर्तव्य है ही नहीं. यानी हम भाग्य के नजदीक आ जाते हैं. अधिकतर हम लोग यही तो करते हैं. सोचते हैं कि हमसे भक्ति तो होती नहीं, जब भाग्य में होगा तो हो जायेगी भक्ति. ये भाग्य-भाग्य जो हम चिल्लाते हैं, क्या है ये 'भाग्य'? वेद से सुनिए,
'पूर्वजन्मकृतं कर्म तद्यैवमिति कथ्यते'.
पूर्व जन्म में हमने जो कुछ कर्म किया है अच्छा या बुरा, इस जन्म में वही भाग्य बनकर आता है. तीन प्रकार के कर्म होते हैं. 'संचित कर्म', वे जो अनंत काल से स्टॉक के रुप में हमारे कर्मों के बहीखाते में जमा हैं. 'प्रारब्ध कर्म', भगवान् इन अनंत कर्मों में से कुछ अच्छे और कुछ बुरे कर्म निकालकर वर्तमान शरीर में फलरुप में भुगतवाते हैं. यही 'भाग्य' कहलाता है, जिस पर हमारा बस नहीं चल सकता, जो हमें भुगतने ही पड़ते हैं. हममें से अधिकाँश लोग पूरा जीवन इसी भाग्य के बंधन में बँधकर गुजारते हैं. यानी भाग्य के भरोसे बैठे रहते हैं. जबकि भाग्य का प्रतिशत केवल 1 या 2 परसेन्ट ही होता है पूरे जीवन में. बाकी तो मनुष्य कर्म करने में पूर्ण रुप से स्वतंत्र है.
जीव जो कर्म वर्तमान में करता है, या कर सकता है, वह 'क्रियमाण कर्म' है. अब ये जीव के ऊपर है कि वह कैसा कर्म करेगा? अच्छा चाहे तो अच्छा कर्म करके अच्छे से अच्छा फल (भाग्य) प्राप्त कर सकता है और चाहे तो बुरा कर्म करके बुरा फल प्राप्त करे. भगवान् किसी के कर्मों में हस्तक्षेप नहीं करते और न ही फल में प्लस-माइनस करते हैं. जीव जैसा करेगा, वैसा ही फल पायेगा. इसलिए,
'उमा दारु जोषित की नाईं, सबहिं नचावत राम गुसाईं'
इस सिद्धांत को भूलकर हमें पुरुषार्थ करना चाहिए. पुरुषार्थी को क्या नहीं सुलभ हो सकता है? जीव चाहे तो भगवान् को प्राप्त कर सकता है. और भगवान् को वश में कर सकता है. भाग्य का रोना रोकर इस मानव देह को भगवान् को प्राप्त करने के मार्ग में नहीं लगाया तो मृत्यु के पश्चात् उसे 'आत्महत्यारे' की गति प्राप्त होती है. वह अपनी आत्मा का हनन यानी नाश या दुर्गति करने वाला है जो मनुष्य देह पाकर आध्यात्म मार्ग में नहीं चलता.
जो न तरइ भवसागर, नर समाज अस पाइ ।
सो कृतनिन्दक मूढ़मति, आतम हन गति जाइ ।।

शास्त्र कह रहा है. शास्त्र ही आगे कहता है कि वह इहलोक-परलोक सर्वत्र दुःख ही प्राप्त करता है और पछताता है जो मनुष्य देह के सुवर्ण अवसर को भगवान् की ओर न लगाकर संसारासक्त होकर और भक्ति को भाग्य व भगवान् के भरोसे रहकर व्यर्थ ही बर्बाद कर देता है.
सो परत्र दुःख पावइ, सिर धुनि धुनि पछिताय ।
कालहिं, कर्महिं, ईश्वरहिं, मिथ्या दोष लगाय ।।

तो हमको समझ लेना है कि करना स्वयं को है. भाग्य साधना (भक्ति) नहीं करायेगा. न भगवान् करायेंगे. इसलिए समझदारी से तुरंत ही इस देह को भगवतमार्ग में लगा देना है. ठीक.
अब आगे चलते हैं. एक शब्द सुन रहे हैं हम लोग - 'भगवत्प्राप्ति का मार्ग'. इससे क्या तात्पर्य है? कौन सा मार्ग है जो भगवान् तक जाता है? इसके विषय में शास्त्र क्या कह रहे हैं?
भागवत में उद्धव ने, जो भगवान् श्रीकृष्ण के अत्यंत प्रिय सखा हैं, उन्होंने प्रश्न किया श्रीकृष्ण से. क्या प्रश्न? यह कि भगवन् ! मैं आपको प्राप्त करने के अनेकानेक मार्गों के विषय में सुनता हूँ. कुछ कहते हैं कि ऐसा करो, तो कुछ कहते हैं ऐसा करो. यहाँ तो अनंत मार्ग दिखाई पड़ते हैं. आप कृपा करके यह बताइये कि इनमें से क्या सभी मार्ग सही हैं या कोई मार्ग सही है? श्रीकृष्ण ने उद्धव को उत्तर दिया था -
याभिर्भूतानि भिद्यन्ते भूतानां मतयस्थता ।
यथाप्रकृति सर्वेषां चित्रा वाचः स्रवंति ।।

एवं प्रकृतिवैचित्र्याद् भिद्यन्ते मतयो नृणाम् ।
पारम्पर्येण केषांचित पाखण्डमतयोपरे ।।

(भागवत 10-14-7, 8)
यानी कि मैंने तो अपने वेदों में मुझे प्राप्त करने का एक ही मार्ग बतलाया है. मेरे वेदों को अलग अलग प्रकृति अर्थात् चित्तवृत्ति के जीवों ने पढ़ा, और अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अनेकानेक अर्थ कर डाले. इस प्रकार अनेक मार्ग बन गए. कुछ मार्ग परंपरा से तो कुछ पाखंडियों ने बना दिए. मायाधीन जीवों ने अपनी प्रकृति अनुसार मेरे वेदों का जो अर्थ किया है, वह सर्वथा गलत है. इन्होंने जो मार्ग बनाये हैं मनमाने, वे भी गलत हैं. क्योंकि उससे शाश्वतानंद एवं आत्यंतिक दुखनिवृत्ति दोनों लक्ष्य प्राप्त न होंगे.
भगवान् ने अपनी प्राप्ति के लिए केवल एक ही मार्ग बताया है - 'भक्ति'. वैसे तो कुल जमा तीन मार्ग संसार में प्रमुख रुप से सुनते हैं. ये हैं कर्म, ज्ञान एवं भक्ति. लेकिन इसमें से भक्तिमार्ग ही स्वतंत्र है. अर्थात् उसको किसी का आश्रय नहीं चाहिए. आइये हम पहले इन तीन में से कर्ममार्ग के ही निरूपण को थोड़ा विस्तार में जानें.
कर्म मार्ग ऐसा है जिसकी प्रशंसा भी शास्त्रों में मिलेगी और घोर निंदा भी. और दोनों ही सही हैं. हम आज इसके एक ही पक्ष को समझते हैं कि कर्म मार्ग की निंदा क्यों की है शास्त्रों ने? शास्त्र कहता है,
अन्धम् तमः प्रविशन्ति येविद्यामुपासते ।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायाङ्-रता ।।

(ईशावास्योपनिषद का 9 वाँ मन्त्र)
वेदमंत्र कह रहा है कि जो कर्म-धर्म करता है, वह अज्ञान को प्राप्त होता है. क्यों कह रहा है ऐसा?
उत्तर भी वेद से सुनिए,
इष्टापूर्तम् मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो वेदयन्ते प्रमूढ़ा: ।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेनुभूत्वेमम् लोकं हीनतरं वा विशन्ति ।।

(मुण्डकोपनिषद् 1-2-10)
कर्म धर्म से क्या फल प्राप्त होगा? स्वर्ग मिलेगा अधिकतम. और अधिक से अधिक यश मिलेगा, कीर्ति, और ऐश्वर्य मिल जायेगा. कैसा? न तो वह दिव्य होगा, न आनंद देने वाला होगा, न दुःखों की निवृत्ति करने वाला होगा, न ही सदा को मिलेगा. स्वर्ग जो हम सुनते हौं, कैसा है वो?
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विषालंक्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति.
(गीता 9-21)
पुण्य की लिमिट के अनुसार मिलता है स्वर्ग. जितना पुण्य किया है उसके अनुसार उतने समय के लिए स्वर्ग मिला करता है.
माना कि वहाँ के शरीर में मृत्युलोक से तमाम ख़ास बातें हैं लेकिन है तो वो भी मायिक. स्वर्ग माया का ही लोक है. मृत्युलोक की भाँति ईर्ष्या, द्वेष, मद, मात्सर, काम, क्रोध, लोभ का साम्राज्य वहाँ भी है. इंद्र को देख लो, राजा है वहाँ का, वह भी ईर्ष्या करता है, उसको भी भय है, 'ब्राम्हम् पदम् याचते', इंद्र भी ब्रम्हा का पद चाहता है, उसको भी लोभ है. कामनायें, वासनायें नहीं गई उसकी भी.
जैसे ही हमारे पुण्य समाप्त होते हैं, जीव को स्वर्ग से नीचे हीनतर कीट-पतंग की योनियों में धकेल दिया जाता है.
यामिमां पुष्पितां वाचं प्रवदन्त्यविपश्चितः ।
वेदवातरताः पार्थ नान्यदस्तीति वादिनः ।।

(गीता 2-42)
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि स्वर्ग के लालच में मूर्ख लोग फँसते हैं. 'स्वर्गहु स्वल्प अंत दुखदायी', स्वर्ग उन्हें आनंद प्रदान नहीं करेगा. अपितु अंत में दुःख ही देगा. वस्तुतः कर्म-धर्म का मार्ग आनंद नहीं देगा.
परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राम्हणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन् ।
(मुण्डकोपनिषद् 1-2-12)
कर्म मार्ग से अंतःकरण की शुद्धि ही नहीं होगी, आनंदप्राप्ति या भगवत्प्राप्ति की कौन कहे?
धर्मः सत्यदयोपेतो विद्या वा तपसान्विता ।
मद्भक्त्यापेतमात्मानं न सम्यक् प्रपुनाति हि ।।

कथं विना रोमहर्षम् द्रवता चेतसा विना ।
विनानंदाश्रुकलया शुद्धयेद् भक्त्या विनाशयः ।।

(भागवत 11-14-22, 23)
आगे मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कह दिया -
नेम धर्म आचार तप, योग यज्ञ जप दान ।
भेषज पुनि कोटिन करिय, रुज न जाहिं हरियान ।।

नियम, धर्म, आचार, तप, योग, यज्ञ, जप, दान, व्रत, उपवास और अन्य कोटि प्रयत्न करने पर भी ये मानस रोग अंतःकरण से नहीं जा सकते. 'ये असाध्य बहु व्याधि', असाध्य कहा तुलसीदास जी ने. इसका अर्थ ये नहीं कि जायेंगे ही नहीं. कर्म-धर्म से नहीं जायेंगे, ये अभिप्राय है.
और हाँ ! एक बात और ध्यानपूर्वक समझ लीजिये. ये जो कर्म से स्वर्ग मिलने की जो बात कही जा रही है, क्या ऐसे ही मिल जायेगा स्वर्ग? वह कर्म-धर्म कैसा होना चाहिए, इसकी भी शर्त है. शत्-प्रतिशत वेदसम्मत हो वह कर्म-धर्म. कर्म धर्म के अनेक कड़े नियम हैं वेदों में. एक का भी उल्लंघन हो गया तो उल्टा फल प्राप्त होता है. यानी दंडविधान है कर्म मार्ग में. कोई पूरा कर भी ले तो स्वर्ग ही पायेगा, सो भी नश्वर. तो इस कर्म मार्ग में दोनों ओर से हानि ही है हमको. इसलिए इस कर्म-धर्म की निंदा की सभी शास्त्रों ने.
अब इसके आगे इसका दूसरा पक्ष देखेंगे कि शास्त्रों ने इसकी प्रशंसा क्यों की है? वह व्याख्या छठवें दिन के सारांश में जानेंगे.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय... श्रीमत्सदगुरु सरकार की जय...
(For more detail, please Like the Official Facebook Page of Sushri Gopikeshwari Deviji, thay is 'Shri Kripalu Bhaktidhara Prachar Samiti'.)
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति

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