नेपाल प्रवचन सारांश : बारहवाँ दिन - 20 सितंबर (2) (9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल) प्रवचन विषय : 'महापुरुष तत्व' (भाग - 2)
राधे राधे..
नेपाल प्रवचन सारांश : बारहवाँ दिन - 20 सितंबर (2)
(9 से 21 सितंबर, शुभ-लाभ पार्टी पैलेस, ललितपुर, नेपाल)
प्रवचन विषय : 'महापुरुष तत्व' (भाग - 2)
जगद्गुरुत्तम् स्वामी श्री कृपालु जी महाराज की कृपाप्राप्त प्रचारिका पूज्यनिया सुश्री गोपिकेश्वरी देवी जी ने दार्शनिक प्रवचन की श्रृंखला में बारहवें दिन 'महापुरुष' तत्व का निरूपण किया. इस दिन की व्याख्या का यह दूसरा भाग है. पहले भाग में हमने जाना था कि महापुरुषों की शरणागति क्यों आवश्यक है? किस महापुरुष की शरणागति करनी है? महापुरुष की प्राप्ति होने पर हमें कौन से 3 काम करने हैं, उसमे भी सेवा के रहस्य को हमने जाना. इसके बाद संक्षेप में यह भी जाना कि महापुरुष हमसे धन का दान क्यों माँगते हैं? इन सब व्याख्याओं के बाद भी हमें इस विषय में बहुत कुछ जानना आवश्यक है. तो ऐयर अब उन्हीं का निरुपण कर समझने की चेष्टा करते हैं.
ईश्वरत्व प्राप्ति के लिए गुरु परमावश्यक है. उससे पूर्व ईश्वर के विषय में शाब्दिक ज्ञान के लिए भी गुरु आवश्यक है. वेदों के रहस्य का प्रतिपादन महापुरुष ही कर सकता है. जीव के अंतःकरण में अनादिकाल से अज्ञान भरा हुआ है. महापुरुष के तत्वज्ञान से ही वह अज्ञान नष्ट होता है. इसी आधार पर हम गुरु तत्व की एक परिभाषा जान सकते हैं -
'गिरति अज्ञानं इति गुरु:'
अथवा 'गृणाति ज्ञानं इति गुरुः'.
अर्थात् जो अज्ञान का नाश कर दे, उसे गुरु कहते हैं. दूसरे शब्दों में जो ज्ञान प्रदान करे, उसे गुरु कहते हैं.
गुरु अथवा संत और भगवान् के संबंध में हमारे संसार में प्रायः 3 प्रकार की मान्यताएँ चलती हैं. कुछ कहते हैं कि भगवान् बड़े हैं और संत छोटे हैं. दूसरे प्रकार के लोग कहते हैं कि नहीं-नहीं संत बड़े हैं और भगवान् छोटे हैं. तीसरे प्रकार की एक और पार्टी है वो कहती है कि दोनों बराबर हैं, कोई छोटा-बड़ा नहीं है. ये मान्यताएँ सुनने में विरोधाभासी प्रतीत हो रही हैं लेकिन ये तीनों ही सत्य हैं. पहली मान्यता की सत्यता जानिये, भगवान् बड़े हैं और संत छोटे हैं.
इस मान्यता में कौन सी ख़ास अकल वाली बात है? यह तो गधे की अकल से समझा जा सकता है.
'ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशी'.
मानस कहती है कि सभी जीव ईश्वर के अंश हैं. गीता भी यही कहती है -
'ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः'. (गीता 15-7)
सनातन अंश हैं सभी जीव उस भगवान् के. तो वे सबके अंशी हुए.
सिद्धांतानुसार अंशी अंश से बड़ा ही होता है. समुद्र की एक तरंग और समुद्र में समुद्र ही बड़ा होता है. पुनः कोई जीव महापुरुष भगवान् की कृपा से ही तो बनता है और जब वो महापुरुष हो जाता है उसके पास जो भी पॉवर आती है वह भगवान् की ही होती है और भगवान् ही उसे प्रदान करते हैं. भगवान् से ही किसी भी जीव का अस्तित्व है. तो यहाँ पर भगवान् ही बड़े हैं. यह तो सरलता से समझ में आ जाता है.
इसी से जोड़कर तीसरे सिद्धांत की सत्यता को भी समझ लेते हैं. वह है कि संत और भगवान् दोनो ही बराबर हैं. पहले सिद्धांत में आपको बताया गया कि जब कोई जीव संत बनता है यानी भगवत्प्राप्ति करता है तो उसी क्षण उसको भगवान् की समस्त शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं. भगवान् में जो 8 दिव्य गुण हैं सत्यकाम, सत्यसंकल्प आदि वो भगवत्प्राप्ति के समय जीव यानी उस संत को भी मिल जाती है. केवल एक शक्ति बच जाती है वो भगवान् अपने ही पास रखते हैं. किसी को नहीं देते और महापुरुष वह चाहता भी नहीं है. वह है 'जगद्व्यापारवर्जम्' (ब्रम्हसूत्र 4-4-17). यानी सृष्टि का सृजन करना, पालन करना और संहार करना. इसके अलावा बाकी सभी शक्तियों में भगवान् और संत बराबर ही होते हैं. इस दृष्टि से उनमें और भगवान् में कोई छोटा-बड़ा नहीं है, दोनों बराबर हैं. तो ये दो सिद्धांत तो ठीक ही हैं. अब तीसरे यानी दूसरे सिद्धांत को समझिये फिर एक आश्चर्य की बात जानेंगे.
दूसरा सिद्धांत था कि संत बड़े हैं और भगवान् छोटे हैं. यह भी सत्य है. हमारे स्वार्थ की दृष्टि से संत भगवान् से बड़े हैं. भगवान् के विषय में शास्त्रों में क्या बात आती है?
'निर्मल मन जन सो मोहि पावा'.
मानस में भगवान् कहते है कि मुझे निर्मल मन वाले ही प्राप्त कर सकते हैं. तो जन्म से ही तो कोई निर्मल मन वाला नहीं होता. वस्तुतः मायाधीन जीव का अंतःकरण तो अनादिकाल का घोर गन्दा और पापयुक्त है. तो यह ईश्वर के लायक बनेगा कैसे? कौन बनायेगा? यह काम करेंगे गुरु. गुरु की शरण में जाकर हम अपना अंतःकरण ही तो शुद्ध करते हैं. वह जैसी साधना बताते हैं, उससे धुलता है हमारा अंतःकरण. गुरु जीव को जब पकड़ता है तो फिर कभी छोड़ता नहीं है. वह उसके कल्याण के लिए फिर दिन-रात प्रयत्न करता है. सदैव उसके कल्याण के लिए चिंतित रहता है. जीव भले इस बात को न समझे जीवनपर्यंत लेकिन गुरु जो भगीरथ प्रयत्न करता है उसके उस उपकार से अनंत जन्म में कोटि कोटि प्रयत्न करके भी उऋण नहीं हुआ जा सकता. वह हमारे कुसंस्कारों से लड़ता है, साधना मार्ग में आने वाली समस्याओं का प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रुप में समाधान करता है. हमारे प्रारब्ध को स्वयं पर झेलकर हमारी रक्षा किये रहता है. यह प्रत्येक साधक के लिए आवश्यक है कि अपने गुरु के प्रेम और कृपा का बारम्बार चिंतन करे.
साधना से जब अंतःकरण शुद्ध हो जाता है तो प्रेमदान भी गुरु ही करता है. भगवान् की स्वरुप शक्ति प्रदान कर हमें कृतार्थ करते हैं. भगवान् को जब हम पा लेते हैं और उनके दिव्य गोलोक में प्रवेश पाते हैं तो उसी गुरु के अंडर में रहकर ही हमको भगवान् की सेवा प्राप्त होती है. अर्थात् प्रारम्भ से लेकर सदा सदा तक के लिए गुरु हमारे साथ ही रहते हैं. वस्तुतः जीव का स्वार्थ भगवान् से नहीं अपितु गुरु से हल होता है. इसलिए मानस में कहा -
'राम ते अधिक राम कर दासा'
राम यानि भगवान् से अधिक उनके जन हमारे लिए प्रथम हैं. कबीरदास जी ने भी यही कहा -
'बलिहारी वा गुरु की जिन्ह गोविंद दियो मिलाय'
स्वयं भगवान् ने अपने श्रीमुख से अपने भक्तों की वन्दना की है -
'निरपेक्षम् मुनिं शान्तं निर्वैरं समदर्शनम् ।
अनुब्रजाम्यहम् नित्यम् पूयेयेत्यंघ्रिरेणुभिः ।।'
(भागवत 11-14-16)
और भी कहा अन्यत्र, 'भक्तन मेरे मुकुटमणि'. तो यहाँ यह सिद्धांत भी हमको समझ में आ गया कि क्यों संत भगवान् से बड़े हैं. अब ये 3 सिद्धांत तो हम जान गए.
अब आपको कहा गया था कि एक चौथी बात जानेंगे. वह अधिक सत्य हैं इन सबसे. और उसी सिद्धान्त को ही हमें भली भाँती अपनी बुद्धि में सदा सदा के लिए बिठाना है. क्या है वह सिद्धांत?
पूर्व के 3 सिद्धांतों में हमने देखा है कि गुरु और भगवान् दो तत्व माने गए हैं. इसी आधार पर तुलनात्मक रुप से 3 सिद्धांत माने गए. परंतु वास्तविकता तो यह है कि गुरु और भगवान् दो पृथक तत्व हैं ही नहीं. तो तुलना का प्रश्न ही नहीं है. भगवान् गीता में क्या कहते हैं सुनिए -
'आचार्य मां विजानियान नावमन्येत कर्हिचित'.
इस श्लोक में भगवान् कह रहे हैं कि गुरु को केवल गुरु ही न मानों. मैं यानी भगवान् ही तुम्हे गुरु रुप में प्राप्त होते हैं, ऐसा मानों. वस्तुतः संत और भगवान् में कोई भेद ही नहीं है.
नारद भक्ति सूत्र में भी 41 वें सूत्र में नारद जी में यह कहा -
'तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात्' (नारद भक्ति सूत्र - 41 वाँ सूत्र)
अर्थात् दोनों में भेद नहीं रहता. दो का अस्तित्व ही नहीं रहता, एक हो जाते हैं.
'सोइ जानइ जेहि देहु जनाइ, जानत तुमहिं तुमहिं ह्वै जाइ'
देखिये महापुरुष की एक परिभाषा समझिये -
'यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्यैव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यम् न विद्यते ।।'
(गीता 3-17)
अर्थात् जो कुछ न करे उसे महापुरुष कहते हैं. अर्थात् जिसके कार्य यानी करनी समाप्त हो जाय. अगर अब भी वह कुछ करता है तो महापुरुष नहीं हो सकता. जैसे फल उत्पन्न होने पर फूल समाप्त हो जाता है इसी प्रकार जैसे जैसे हम ईश्वर की ओर बढ़ते हैं वैसे वैसे शुभाशुभ कर्म समाप्त होते जाते हैं और जब पूर्णतया ईश्वर के पास पहुँच जाते हैं तब समस्त कर्म समाप्त हो जाते हैं. कर्म समाप्त हो जाने से कर्मबंधन नहीं होते और फिर ईश्वरप्राप्ति ही अंतिम परिणति है. ईश्वर की प्राप्ति कर जीव कृतार्थ हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है. फिर अब वह कोई कार्य क्यों करे?
दूसरी प्रकार से समझिये. वर्तमान में जब हम माया के अंडर में हैं तब हमारी स्थिति कैसी होती है? हम ईश्वर की ओर पीठ किये हुए हैं और ईश्वर और हमारे बीच में माया है, भगवान् की शक्ति. अभी हम उसी माया की प्रेरणा से कार्य कर रहे हैं, उसके आधीन होकर. लेकिन जब जीव अबाउट टर्न होकर ईश्वर की ओर मुड़ता है और शरण हो जाता है तो ईश्वर के आदेश से माया दोनों के मध्य से हट जाती है. अब जीव के डाइरेक्ट प्रेरक और कर्ता भगवान् हो जाते हैं. यानी जीव अब कुछ नहीं करता, उसका करना समाप्त. अब उसके द्वारा भगवान् ही सारा कार्य करते हैं. वह जो कुछ करता दिखलाई पड़ता है, वह भगवान् की प्रेरणा से भगवान् द्वारा ही होता है. अर्थात् महापुरुष और भगवान् एक हो जाते हैं.
इसलिए महापुरुष के किसी कार्य में बुद्धि कभी भी नहीं लगानी चाहिए. क्योंकि वह तो कुछ करता ही नहीं. जो करता दिखाई पड़े तो उसका एक ही लक्ष्य होता है जीव पर कृपा करना. वस्तुतः जीव के कल्याण के लिए ही वह कुछ भी करता है. भगवान् और गुरु दोनों मिलकर, दोनों एक होकर जीव को साधना पथ पर आगे बढ़ाते हैं. भगवान् ने अपने वेदादिकों में यह आज्ञा दी है कि जीव को भगवान् और महापुरुष यानी गुरु दोनों को एक समान मानकर समान रुप से दोनों की भक्ति करनी होगी. ऐसा नहीं कि भगवान् की भक्ति अधिक करे और गुरु की कम. भगवान् कह रहे हैं -
'यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ:' (गीता 4-11)
समान रुप से दोनों की भक्ति करनी है. सिद्धांत तो यहाँ तक है कि भले ही केवल गुरु की भक्ति कर ली जाय, उससे लक्ष्य प्राप्त हो जायेगा अन्यथा दोनों की समान भक्ति हो. केवल भगवान् की भक्ति अथवा भगवान् की अधिक और गुरु की कम, इन दोनों से काम नहीं बनने वाला. वस्तुतः तो गुरुभक्त को ही भगवान् ने अपना वास्तविक भक्त बतलाया है. वेदव्यास जी की यह उक्ति पढ़िए -
'मद्भक्तस्य ये भक्तास्ते मे भक्ततमा मताः' (वेदव्यास)
जो मेरे भक्त के भक्त हैं, वे ही मेरे असली भक्त हैं. भगवान् कह रहे हैं.
आगे भगवान् कहते हैं -
'गुरुर्येन परित्यक्त तेन त्यक्तः पुरा हरिः'
जिसने गुरु को त्याग दिया, उसके साथ द्रोह किया तो चाहे करोडो जन्म आँसू बहा ले भगवान् उससे करोड़ों कोस दूर चले जायेंगे. इसलिए दोनों की समान भक्ति अनिवार्य है.
अब इसके आगे एक महत्वपूर्ण प्रश्न और शेष रह गया है कि हम कैसे पहिचानेंगे कि कौन वास्तविक महापुरुष है? क्या विशिष्ट पहिचान है उसकी. इस प्रश्न को अंतिम दिन के प्रवचन के सारांश में समझेंगे.
बोलिये वृन्दावन बिहारी लाल की जय.. श्रीमत्सदगुरुसरकार की जय...
# श्री कृपालु भक्तिधारा प्रचार समिति
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