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जय सियाराम जय सियाराम जय सियाराम जय जय सियाराम
श्रीरामचरितमानस– उत्तरकाण्ड दोहा संख्या 115से आगे .....
चौपाई :
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ। बेद पुरान संत मत भाषउँ।।
मोह न नारि नारि कें रूपा। पन्नगारि यह रीति अनूपा।।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ। नारि बर्ग जानइ सब कोऊ।।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी। माया खलु नर्तकी बिचारी।।
भगतहि सानुकूल रघुराया। ताते तेहि डरपति अति माया।
राम भगति निरुपम निरुपाधी। बसइ जासु उर सदा अबाधी।।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई। करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।।
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी। जाचहिं भगति सकल सुख खानी।।
भावार्थ: यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता। वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ। हे गरुड़जी ! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती।।आप सुनिये, माया और भक्ति-ये दोंनों ही स्त्रीवर्ग हैं; यह सब कोई जानते हैं। फिर श्रीरघुनाथजी को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनीमात्र) है।। श्रीरघुनाथजी भक्तिके विशेष अनुकूल रहते हैं। इसी से माया उससे अत्यन्त डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है;।।उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे सभी सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं।।
दोहा :
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ।।116क।।
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन।।116ख।।
भावार्थ: श्रीरघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता। श्रीरघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता।।हे सुचतुर गरुड़जी ! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिये, जिसके सुनने से श्रीरामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है।।116(क -ख)।।
शेष अगली पोस्ट में....
गोस्वामी तुलसीदासरचित श्रीरामचरितमानस, उत्तरकाण्ड, दोहा संख्या 116, टीकाकार श्रद्धेय भाई श्रीहनुमान प्रसाद पोद्दार, पुस्तक कोड-81, गीताप्रेस गोरखपुर
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राधे राधे ।