(दिव्य परमात्मा श्रीकृष्णचन्द्र कौन है? कहा है?)
राजा बहुलाश्व ने पूछा:- महर्षे, साक्षात परिपूर्णतम भगवान श्रीकृष्णचन्द्र सर्वव्यापी चिन्मय गोलोकधाम से उतरकर जो भारत वर्ष के अंतर्गत द्वारकापुरी में विराज रहे हैं- इसका क्या कारण है?
ब्रह्मन, उन भगवान श्रीकृष्ण के सुन्दर बृहत (विशाल या ब्रह्म स्वरूप) गोलोकधाम का वर्णन कीजिये।
श्रीनारद जी बोले:- नृपश्रेष्ठ तुम धन्य हो, भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के अभीष्ट जन हो और उन श्रीहरि के परम प्रिय भक्त हो।
तुम्हें दर्शन देने के लिये ही वे भक्त वत्सल भगवान यहाँ अवश्य पधारेंगे।
ब्रह्मण्यदेव भगवान जनार्दन द्वारका में रहते हुए भी तुम्हें और ब्राह्मण श्रुतदेव को याद करते रहते हैं, अहो, इस लोक में संतों का कैसा सौभाग्य है।
ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोक धाम का दर्शन- (1)
श्रीनारदजी कहते हैं:- जो जीभ पाकर भी कीर्तनीय भगवान श्रीकृष्ण का कीर्तन नहीं करता, वह दुर्बुद्धि मनुष्य मोक्ष की सीढ़ी पाकर भी उस पर चढ़ने की चेष्टा नहीं करता।
जिह्वां लब्वा ह् पि य: कृष्णं कीर्तनीयं न कीर्तयेत्।
लब्वायेत्पि मोक्षनि: श्रेणीं स नारोहति दुर्मति:॥
राजन, अब इस वाराहकल्प में धराधाम पर जो भगवान श्रीकृष्ण का पदार्पण हुआ है और यहाँ उनकी जो-जो लीलाएँ हुई हैं, वह सब मैं तुमसे कहता हूँ, सुनो
बहुत पहले की बात है, दानव, दैत्य, आसुर स्वभाव के मनुष्य और दुष्ट राजाओं के भारी भार से अत्यंत पीडित हो, पृथ्वी गौ का रूप धारण करके, अनाथ की भाँति रोती-बिलखती हुई अपनी आंतरिक व्यथा निवेदन करने के लिये ब्रह्माजी की शरण में गयी, उस समय उसका शरीर काँप रहा था।
वहाँ उसकी कष्ट कथा सुनकर ब्रह्माजी ने उसे धीरज बँधाया और तत्काल समस्त देवताओं तथा शिवजी को साथ लेकर वे भगवान नारायण के वैकुण्ठधाम में गये।
वहाँ जाकर ब्रह्माजी ने चतुर्भुज भगवान विष्णु को प्रणाम करके अपना सारा अभिप्राय निवेदन किया।
तब लक्ष्मीपति भगवान विष्णु उन उद्विग्न देवताओं तथा ब्रह्माजी से इस प्रकार बोले।
श्रीभगवान ने कहा:- ब्रह्मन, साक्षात भगवान श्रीकृष्ण ही अगणित ब्रह्माण्डों के स्वामी, परमेश्वर, अखण्ड स्वरूप तथा देवातीत हैं, उनकी लीलाएँ अनंत एवं अनिर्वचनीय हैं।
उनकी कृपा के बिना यह कार्य कदापि सिद्ध नहीं होगा, अत: तुम उन्हीं के अविनाशी एवं परम उज्ज्वल धाम में शीघ्र जाओ।
कृष्णंग स्वषयं विगणिताण्डापतिं परेशं साक्षादखण्डकमतिदेवमतीवलीलम्।
कार्यं कदापि न भविष्योति यं विना हि गच्छांशु तस्य् विशदं पदमव्यमयं त्वलम्॥
श्रीब्रह्माजी बोले:- प्रभो, आपके अतिरिक्त कोई दूसरा भी परिपूर्णतम तत्त्व है, यह मैं नहीं जानता।
यदि कोई दूसरा भी आपसे उत्कृष्ट परमेश्वर है, तो उसके लोक का मुझे दर्शन कराइये।
श्रीनारदजी कहते हैं:- ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने पर परिपूर्णतम भगवान विष्णु ने सम्पूर्ण देवताओं सहित ब्रह्माजी को ब्रह्माण्ड शिखर पर विराजमान गोलोकधाम का मार्ग दिखलाया।
वामनजी के पैर के बायें अँगूठे से ब्रह्माण्ड के शिरोभाग का भेदन हो जाने पर जो छिद्र हुआ, वह ‘ब्रह्मद्रव’ (नित्य अक्षय नीर) से परिपूर्ण था।
सब देवता उसी मार्ग से वहाँ के लिये नियत जलयान द्वारा बाहर निकले।
वहाँ ब्रह्माण्ड के ऊपर पहुँचकर उन सबने नीचे की ओर उस ब्रह्माण्ड को कलिंगबिम्ब (तूँबे) की भाँति देखा।
इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत-से ब्रह्माण्ड उसी जल में इन्द्रायण-फल के सदृश इधर-उधर लहरों में लुढ़क रहे थे।
यह देखकर सब देवताओं को विस्मय हुआ, वे चकित हो गये।
वहाँ से करोड़ों योजन ऊपर आठ नगर मिले, जिनके चारों ओर दिव्य चहारदीवारी शोभा बढ़ा रही थी और झुंड़-के-झुंड़ रत्नादिमय वृक्षों से उन पुरियों की मनोरमा बढ़ गयी थी।
वहीं ऊपर देवताओं ने विरजा नदी का सुन्दर तट देखा, जिससे विरजा की तरंगें टकरा रही थीं। वह तटप्रदेश उज्ज्वल रेशमी वस्त्र के समान शुभ्र दिखायी देता था। ऐसा ह गोलोक धाम।।
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ब्रह्मादि देवों द्वारा गोलोक धाम का दर्शन
दिव्य गौलोक में देवताओं ने आगे देखा गौओं की रक्षा करने वाले चरवाहे भी अनेक हैं, उनमें से कुछ तो हाथ में बेंत की छड़ी लिये हुए हैं और दूसरों के हाथों सुन्दर बाँसुरी शोभा पाती है।
उन सबके शरीर का रंग श्यामल है, वे भगवान श्रीकृष्णचन्द्र की लीलाएँ ऐसे मधुर स्वरों में गाते हैं कि उसे सुनकर कामदेव भी मोहित हो जाता है।
इस ‘दिव्य निज निकुंज’ को सम्पूर्ण देवताओं ने प्रणाम किया और भीतर चले गये।
वहाँ उन्हें हजार दलवाला एक बहुत बड़ा कमल दिखायी पड़ा, वह ऐसा सुशोभित था, मानो प्रकाश का पुंज हो।
उसके ऊपर एक सोलह दल का कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दल वाला कमल है।
उसके ऊपर चमचमाता हुआ एक ऊँचा सिंहासन है।
तीन सीढ़ियों से सम्पन्न वह परम दिव्य सिन्हासन कौस्तुभ मणियों से जटित होकर अनुपम शोभा पाता है।
उसी पर भगवान "श्रीकृष्णचन्द्र श्रीराधिकाजी" के साथ विराजमान हैं, ऐसी झाँकी उन समस्त देवताओं को मिली।
वे युगल रूप भगवान मोहिनी आदि आठ दिव्य सखियों से समंवित तथा श्रीदामा प्रभृति आठ गोपालों के द्वारा सेवित हैं।
उनके ऊपर हंस के समान सफेद रंग वाले पंखे झले जा रहे हैं और हीरों से बनी मूँठ वाले चँवर डुलाये जा रहे हैं।
भगवान की सेवा में करोंड़ों ऐसे छत्र प्रस्तुत हैं, जो कोटि चन्द्रमाओं की प्रभा से तुलित हो सकते हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के वामभाग में विराजित श्रीराधिकाजी से उनकी बायीं भुजा सुशोभित है।
भगवान ने स्वेच्छा पूर्वक अपने दाहिने पैर को टेढ़ा कर रखा है, वे हाथ में बाँसुरी धारण किये हुए हैं।
उन्होंने मनोहर मुस्कान से भरे मुखमण्डल और भ्रकुटि-विलास से अनेक कामदेवों को मोहित कर रखा है।
उन श्रीहरि की मेघ के समान श्यामल कांति है, कमल-दल की भाँति बड़ी विशाल उनकी आँखें हैं।
घुटनों तक लंबी बड़ी भुजाओं वाले वे प्रभु अत्यंत पीले वस्त्र पहने हुए हैं।
भगवान गले में सुन्दर वनमाला धारण किये हुए है जिस पर वृन्दावन में विचरण करने वाले मत वाले थापरों की गुंजार हो रही है।
पैरों में घुँघरू और हाथों में कंकण की छटा छिटका रहे हैं, अति सुन्दर मुस्कान मन को मोहित कर रही है।
श्रीवत्स का चिन्ह, बहुमूल्य रत्नों से बने हुए किरीट, कुण्डकल, बाजुबन्द और हार यथास्थान भगवान की शोभा बढ़ा रहे हैं।
भगवान श्रीकृष्ण के ऐसे दिव्य दर्शन प्राप्तकर सम्पूर्ण देवता आनन्द के समुद्र में गोता खाने लगे।
अत्यंत हर्ष के कारण उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह चली।
तब सम्पूर्ण देवताओं ने हाथ जोड़कर विनीत-भाव से उन परम पुरुष श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम किया।
श्री राधे कृष्णा राधे कृष्णा हरे कृष्णा हरे कृष्णा ....
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राधे राधे ।