।।श्रीमते रामानुजाय नमः।।
शुक-मनमोहक श्लोक
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बर्हापीडं नटवरवपुः कर्णयोः कणिकारं
विभ्रद्वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।
रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दै-
र्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः।।
भाग0 10/21/5
"परमानन्दकन्द भगवान श्रीकृष्णचन्द्र
नटवर-वपु को धारण किये, बर्हमय आपीड को धारण किये, वैजन्तीमाला को पहने, कानों में कर्णिकार धारण किए, पीताम्बरधर पहने, अधर-सुधा से वेणु को परिपूरित करते हुए, गोपवृन्दों के संग विलसित होते हुए श्रीमद् वृन्दावन धाम में पधारे।"
श्लोक का भाव
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श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ वृन्दावन में प्रवेश कर रहे हैं, उन्होंने मस्तक पर मोर-पंख धारण किया हुआ है, कानों पर पीले-पीले कनेर के पुष्प, शरीर पर सुन्दर मनोहारी पीताम्बर शोभायमान हो रहा है तथा गले में सुन्दर सुगन्धित पुष्पों की वैजयन्तीमाला धारण किये हैं। रंगमंच पर अभिनय करनेवाले नटों से भी सुन्दर और मोहक वेष धारण किये हैं श्यामसुन्दर I बांसुरी को अपने अधरों पर रख कर उसमें अधरामृत फ़ूंक रहे हैं ग्वालबाल उनके पीछे-पीछे लोकपावन करनेवाली कीर्ति का गायन करते हुए चल रहे हैं, और वृन्दावन आज श्यामसुन्दर के चरणों के कारण वैकुण्ठ से भी अधिक सुन्दर और पावन हो गया है।
भगवान की सुन्दरता ओर श्रीराधा जी ने अपनी सखी से कहा –
व्रीडां विलोडयति लुज्जति धैर्यमार्यभीतिं भिनति परिलुम्पति चित्तवृत्तिम्।
नामैव यस्य कलितं श्रवणोपकण्ठे दृष्टः स किं न कुरुतां सखि! मद्विधानाम्।।
श्रीआनन्दवृन्दावनचम्पूः,अष्टमः स्तवकः/ 38
अर्थात हे सखि! जिसका केवल नाम ही हम जैसी अनुरागियों के कानों के निकट जाते ही लज्जा को लोट-पेाट कर देता है- भग्न कर देता है, धैर्य को नोच लेता है दूर कर देता है। वृद्धजनों से होने वाले भय को टूक-टूक कर देता है। चित्तवृत्ति को चारों ओर से छिन्न-भिन्न कर देता है। तब ऐसी स्थिति में वह दृष्टिगोचर होकर क्या नहीं करेगा? इसको कौन कह सकता है?
श्रीराधा जी के मंगलमय दिव्य कानों में जैसे ही श्रीकृष्ण नाम सुनाई पड़ा – ‘श्रीकृष्ण’! कितना मधुर नाम। श्री राधारानी ब्रजेन्द्रनन्दिनी ने उसी समय निर्णय कर लिया – ‘‘मैंने अपना सर्वस्व इस नाम पर न्योछावर कर दिया है। अब कोई कृष्ण मिले या न मिले। मैंने तो इसी 'श्रीकृष्ण' नाम पर ही अपना सर्वस्व समर्पण कर दिया है।’’
एक दिन चित्रा सखी ने मदनमोहन श्याम सुन्दर श्रीकृष्णचन्द्र का चित्र श्रीराधा जी की दिखाया। चित्र देखकर राधारानी बहुत मोहित हो गयीं। उस चित्र को देख कर उसी क्षण वह रोने लग गयीं। जब सखियों ने पूछा, ‘‘क्यों रोती हो सखी?’’ श्रीराधा बोलीं , ‘‘हमारा तो पातिव्रत्य भंग हो गया। अब जिएगीं नहीं।’’ सखियों ने कहा- ‘‘क्यों सखी तुम्हारा पातिव्रत्य कैसे भंग हो गया?’’
श्रीराधा बोलीं बोलीं –
एकस्य श्रुतमेव लुम्पति मतिं कृष्णेति नामाक्षरं सान्द्रोन्मादपरम्परामुपनयत्यन्यस्य वंशीरवः।
एषा स्निग्धघनद्युतिर्मनसि मे लग्ना सकृद्वीक्षणात् हा षिड्मे पुरुषत्रये रतिरभून्मन्ये मृतिः श्रेयसी।।
–वही
श्रीराधा जी ने ललिता जी से कहा- "सखि! एक दिन मेरे कानों में कृष्ण नाम आया। कृष्ण नाम ने व्रीडा का विलोडन कर डाला, मथ डाला। कुलाअंगनाओं में जो धैर्य होता है। जिसके बल पर वे सतीत्व की रक्षा करती हैं उसका भी लुचंन कर डाला; नोच डाला। गुरुजनों का डर है, उसे भी छिन्न-भिन्न कर डाला। मैंने अपना सर्वस्व उस नाम पर न्योछावर कर डाला। सोचा- बस, जीवन इसी पर युग-युगान्तर कल्प-कल्पान्तर के लिए न्योछावर है। परन्तु सखि! एक दिन किसी के मुखचन्द्र से निर्गत वेणुगीतामृत मेरे कानों में आ गया। उसने तो उन्माद की अखण्ड धारा जारी कर दिया। अब मैं क्या करूँ।"
रमेशप्रसाद शुक्ल
जय श्रीमन्नारायण ।
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राधे राधे ।