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♻♻ हमारे महाराज जी ♻♻

सायंकाल शरद पूर्णिमा की दावत थी।सब लोगों को खाना परोसा जा रहा था निगम साहब भी एक पंक्ति में बैठे थे। तभी अचानक पता नहीं क्या हुआ और वह पत्तल छोड़कर उठ गये। चीख चीख कर रोने लगे। हर एक के पैर छूते और प्रभु दर्शन की भीख पल्लू फैलाकर माँगते। इस बीच श्री महाराज जी वहाँ आ गये। निगम साहब को अपने सीने से चिपका लिया। महाराज जी का वक्षस्थल उनके आँसुओं से भीग गया। उन्होंने निगम साहब को पत्तल पर बैठाया, उनके सिर पर हाथ फेरा, सांत्वना दी और अपने हाथों से उनके मुंह में एक कौर खाना खिलाया तब जाकर निगम साहब को शांति हुई और बाकी का खाना खाया।

🌺एक रात कीर्तन हो रहा था निगम साहब की पत्नी श्रीमती शकुंतला देवी बोली, निगम साहब को क्यों इतना भाव और रोना आता है। हमें तो कहीं नहीं आता। बस आधा घंटा ही हुआ था कि वे चीख कर गिरी और बेहोश हो गयी। अन्य महिलाओं ने हाथ पैर पकडकर उन्हें भी कमरे में ले जाकर पटक दिया। वहां वे घँटो नृत्य करती रही। उनके पति का अहंकार चूर्ण हो चुका था। उनके अहं का नाश करने वाला भला वह कौन था।

🌺सुश्री उर्मिला गर्ग अपने अध्ययन काल में सदा ही प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होती रही। सुश्री ब्रज मँजरी दीदी के सम्पर्क में आयी तो संसार को छोड़कर अध्यात्म से जुड़ गयी। पहले श्री महाराज जी की आज्ञा से साधना भवन के लिए चन्दा करने लगी। एक दिन श्री महाराज जी के परामर्श के विरुद्ध दूसरे क्षेत्र में चन्दा करने चली गई। वहां और दिनों के मुकाबले आधा चन्दा भी नहीं मिल पाया। शाम को आकर बहुत रोयीं। आगे से फिर सदा महाराज जी के बताये अनुसार ही चंदा माँगने के लिए जाती, उन्हें ये आभास हो गया था कि श्री महाराज जी की कृपा और उनकी संकल्प शक्ति से ही उसका कार्य सम्पन्न होता है उसके अपने परिश्रम से नहीं।

🌺सुश्री स्नेहलता का एक छोटा भाई श्री महाराज जी के बहुत विरूद्ध था। वाक्या 17 जनवरी 1952 का है उस दौरान श्री महाराज जी हमारे घर आये हुए थे। उस समय मेरा छोटा भाई पता नहीं उसे क्या हुआ जो हमेशा   महाराज जी के विरुद्ध रहा करता था। महाराज जी के सामने आते ही जैसे ही उसने महाराज जी को देखा दोनों हाथ जोड़कर काँपने लगा। चरण छूकर उनके पास बैठ गया। बाद में कहने लगा ये असली सन्त हैं इनके पास बैठने पर अपार शान्ति मिलती है।

🌺कुछ ऐसा ही वाक्या एक सत्संगी मु०अ० अपना संस्मरण सुनाते हुए कहती हैं। कि जब उनकी उम्र 13, 14 वर्ष की थी तभी से वह अपने पिता के साथ मन्दिरों में और वृन्दावन में रास देखने जाया करती थी। 14 वर्ष की आयु में जब महाराज जी के दर्शन हुए तब उन्हें अनुभव हुआ कि साक्षात् रास बिहारी के रूप में वो सामने खड़े  हैं। आगे कहती हैं कि महाराज जी में मुझे कभी शंकर जी के रूप में तो कभी पूर्ण श्रंगार किये ठाकुर जी के रूप में दिखाई दिये हैं। मानों हर बार उन्होंने यह सिद्ध किया कि मैं यह भी हूँ और वह भी हूँ।

॥ हमारे प्यारे प्यारे श्री महाराज जी की जय॥

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