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सखी भाव

क्या जगद्गुरु श्री कृपालु जी महाराज ने गोपी भाव के आगे की कक्षा वाले प्रेम की बात नहीं कही?

कही है। महाराज जी रसिक शिरोमणी हैं। महाराज जी ने ऊँची से ऊँची कक्षा के प्रेम की बात कही है।  आइये इस मीठी सी यात्रा पर चलें....

१) इतिहास इस बात का साक्षी है कि जितने भी रसिक संत हुए हैं उनका कोई न कोई भाव अवश्य होता है। हर रसिक महापुरुष का कोई न कोई भाव अवश्य होता है जिस भाव से वो भगवान को प्रेम करता है। इस भाव को राग कहा जाता है। जैसे किसी रसिक महापुरुष का राग हो सकता है वात्सल्य। वो वात्सल्य भाव/राग से भगवान को प्रेम करते हैं। ऐसे ही हर रसिक का अपना कोई ना कोई राग अवश्य होता है जिस राग से वो भगवान को प्रेम करते हैं।

२ ) जो जीव उस रसिक की शरण में जाता है उस जीव को भी वही राग प्राप्त होता है। वो भी उसी राग से भगवान को प्रेम करने का अभ्यास करता है। इसी को रागानुगा उपासना कहते हैं। किसी रसिक संत के राग के अनुगत चलना ही रागानुगा भक्ति है। 

३) श्री कृपालु महाप्रभु के जितने भी सत्संगी हैं वो सब महाराज जी की शरण में रागानुगा भक्ति कर रहे हैं। कहने का अर्थ ये है कि वो सभी सत्संगी महाराज जी के राग का अभ्यास कर रहे हैं। जिस भाव से महाराज जी भगवान को प्रेम करते हैं हम बच्चे भी उसी भाव से भगवान को प्रेम करें। तभी वो रागानुगा भक्ति कहलाएगी। यदि हम जानते ही नहीं कि महाराज जी का भाव क्या है, महाराज जी किस भाव से भगवान को प्रेम करते हैं तो रागानुगा भक्ति करना संभव नहीं होगा। पहले ये जानना परम आवश्यक है कि हमारे महाराज जी का भाव आखिर है क्या?

४) हमारे महाराज जी का भाव गोपी भाव नहीं है। मुझे ज्ञात है कि इस बात पर विश्वास करना बहुत कठिन है। इसीलिए इस बात को एक बार पुनः लिखना आवश्यक है। हमारे महाराज जी का भाव गोपी भाव नहीं है।

किन्तु महाराज जी ने तो अपने हर प्रवचन में कहा है कि साधक को माधुर्य भाव से श्री कृष्ण की भक्ति करनी चाहिए। हाँ ये सत्य है कि महाराज जी ने अपने प्रवचनों में बार बार ऐसा कहा है। किन्तु ये भी सत्य है कि महाराज जी स्वयं गोपी भाव से भगवान को प्रेम नहीं करते। गोपी भाव तो उन्होंने केवल इसलिए बताया कि उनके राग को समझने से पहले जीव अंतःकरण शुद्धि के मार्ग पर पहला चरण तो रख सके। महाराज जी के राग तक जाने के लिए जीव पहला कदम तो उठाये। इसलिए गोपी भाव का उपदेश दिया महाराज जी ने। किन्तु अपने पदों में महाराज जी ने गोपी भाव से भी आगे की बातें लिख दी। अपने पदों में उन्होंने अपना राग प्रकट कर दिया। अपने पदों में उन्होंने यह प्रकट कर दिया वो स्वयं किस भाव से भगवान को प्रेम करते हैं।

५) तो क्या है महाराज जी का राग? किस भाव से प्रेम करते हैं महाराज जी भगवान को ? महाराज जी के भाव के तीन अंग हैं .......

* श्याम सुन्दर के प्रति मानिनी भाव -

मानिनी का अर्थ होता है जब कोई स्त्री मान करे,उखड़ा उखड़ा व्यवहार करे, कड़वे शब्द बोले एवं अपने व्यवहार में कुछ क्रोध प्रकट करे । २ प्रकार की सखियाँ बतायी गयी हैं। मानिनी और मुग्धा। मुग्धा उनको कहते हैं जो श्याम सुन्दर के प्रति आदर और प्रेम का व्यवहार करती हैं। मानिनी उनको कहते हैं जो भीतर से श्याम सुन्दर को उतना ही प्रेम करती हैं जितना कि मुग्धा सखियाँ करती हैं किन्तु व्यवहार में श्याम सुन्दर से कभी सीधे मूँ बात नहीं करती और डाँट देती हैं। महाराज जी के भाव का पहला अंग यही है। महाराज जी मानिनी सखी के भाव से श्याम सुन्दर को प्रेम करते हैं।

* राधारानी की सेवा प्राप्त करने की इच्छा -

गोपी उन सखियों को कहा जाता है जो श्री कृष्ण के प्रति निष्काम माधगुरया भाव रखती हैं। किन्तु एक और प्रकार की सखियाँ होती हैं जो कभी भी श्री कृष्ण के प्रति सीधा सीधा माधुर्य भाव नहीं रखती।  ये सखियाँ श्याम सुन्दर को अपना प्रियतम नहीं मानती। ये सखियाँ केवल राधारानी से प्रेम करती हैं और श्याम सुन्दर को राधारानी का प्रियतम मानती हैं। ये सखियाँ  सदा इस बात को याद रखती हैं कि श्याम सुन्दर मेरे प्रियतम नहीं हैं, राधारानी के प्रियतम हैं। इस भाव की जो सखियाँ हैं वो महारास में भी सम्मिलित नहीं होती। वो श्याम सुन्दर के प्रति माधुर्य भाव रखती ही नहीं।

इन सखियों के अनेक नाम हैं। कोई इनको मंजरी कहता है। कोई सहचरी कहता है। कोई केवल सखी कहता है। नाम कोई भी हो। किन्तु ये राधा स्नेहाधिका हैं। इनका स्नेह राधारानी के प्रति अधिक होता है और ये स्वप्न में भी श्याम सुन्दर को अपना प्रियतम नहीं मानती। इनको श्याम सुन्दर के प्रति माधुर्य भाव रखने में कोई रूचि नहीं होती और न ही कोई सुख प्राप्त होता है। इनकी बस एक ही कामना रहती है दिन रात कि राधारानी को श्री कृष्णा का सुख मिले, राधारानी को अपने प्रियतम का सुख मिले। इस रस को रसिक महापुरुषों ने गोपी भाव से भी कई गुना मीठा रस बताया है।

ये महाराज जी के राग का दूसरा अंग है। महाराज जी के ह्रदय में सदा ये लालसा रहती है कि मैं राधारानी की सेवा करूँ और उनको श्री कृष्ण का सुख प्रदान करूँ।

* युगल सरकार की अंतरंग लीलाओं का दर्शन -

सखी/मंजरी/सहचरी को सबसे अधिक सुख कब मिलता है? जब वो देखती है की युगल सरकार एक दूसरे के साथ हैं और एक दूसरे को सुख दे रहे हैं। यही सुख प्राण है सखी का। युगल सरकार की लीलाओं का दर्शन करना ही सखी की एक मात्र इच्छा है। यही महाराज जी के भाव का तीसरा अंग है। महाराज जी सदा ही सखी भाव से युगल सरकार की लीलाओं दर्शन करने को व्याकुल रहते हैं।

इस बात का प्रमाण क्या है कि महाराज जी का भाव यही है?

इसका प्रमाण ये है कि वर्ष २०१२ में जब प्रेम रस मदिरा ग्रन्थ का अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद छापा गया तो उस ग्रन्थ में महाराज जी के भाव के ये तीनो अंग लिखे गए। और उस पुस्तक को महाराज जी ने अपने हाथों से उठा के देखा और बहुत प्रसन्न हुए। इसके आगे किसी प्रमाण की कोई आवश्यक्ता रह ही नहीं जाती। 

हमारे महाराज जी हैं कौन?

श्री कृष्ण सदा ललाहित रहते हैं कि सखी बनके राधारानी की सेवा करें। अपनी इस इच्छा को पूरा करने के लिए श्री कृष्ण ने अनादि काल से अपना एक सखी स्वरुप प्रकट कर रखा है। उस सखी का नाम है श्री कृपालु सखी। श्री कृष्ण ही स्वयं कृपालु सखी हैं। कृपालु सखी के रूप में श्याम सुन्दर सदा अपनी राधे के साथ रहते हैं और सेवा करते हैं। कृपालु सखी राधारानी की सबसे अंतरंग सखी हैं। वही कृपालु सखी (श्री कृष्ण का सखी स्वरुप) जगदगुरु श्री कृपालु जी महाराज के रूप में इस पृथ्वी पर आयीं थीं।

राधा कृष्ण लीला में महाराज जी के कई स्वरुप हैं। महाराज जी स्वयं श्री कृष्ण हैं, कृपालु सखी भी हैं एवं युगल सरकार की अंतरंग कृपा शक्ति भी हैं।

श्री कृपालु सखी जिस भाव से राधा कृष्ण को प्रेम करती हैं उस भाव के तीनों अंग एक बार पुनः लिखे जा रहे हैं  :

* श्री कृष्ण के प्रति भीतर से सम्मान का भाव रखना किन्तु बाहर से मानिनी व्यवहार करना (उनको डाँटना, ताने मारना और मीठा सा अपमान करना) । जैसे कि , "जा जा मुझे तंग मत कर नहीं तो मारूंगी। अपना काला कलूटा मुख देख दर्पण में, कहाँ तू और कहाँ हमारी राधारानी" आदि।

* राधारानी की सखी बनके उनकी सेवा करने की लालसा

* सखी बनके युगल सरकार की लीलाओं का दर्शन करने का लोभ

यदि किसी सत्संगी भाई बहन को महाराज जी की छत्र छाया में रागानुगा उपासना करनी है तो उन्हें महाराज जी के राग के अनुगत चलना होगा। महाराज जी के राग/भाव के तीनो अंग (जो उप्पर बताये गए हैं) अपने ह्रदय में धारण करके इसी भाव से राधा कृष्ण को प्रेम करना होगा। यदि हम महाराज जी के भाव के अनुसार भक्ति नहीं करेंगे तो क्या वो भक्ति नहीं होगी? ऐसा नहीं है। वह अवश्य भक्ति होगी। किन्तु वह रागानुगा भक्ति नहीं होगी। भक्ति किसी भी भाव से करी जाए वह वंदनीय है। किन्तु रागानुगा भक्ति का रस अधिक मीठा होता है।

अब एक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रश्न मन में आ सकता है। जो सत्संगी गोपी भाव ही पसंद करते हैं और श्री कृष्ण के प्रति माधुर्य भाव रखते हैं उनका क्या होगा? क्या उनको गोपी भाव प्राप्त नहीं होगा? क्या उनको जबरदस्ती महाराज जी का भाव ही स्वीकार करना पड़ेगा? क्या वो अपनी रुचि का भाव नहीं चुन सकते?

महाराज जी भगवान हैं। भगवान किसी भी भाव से भगवत प्राप्ति करवा सकते हैं। जीव तड़प के जो भी भाव माँगेगा हमारे प्यारे श्री कृपालु महाप्रभु उस जीव को वही भाव दे देंगे। उनके दरबार में सब मिलता है। किन्तु सबसे अधिक मिठास उसी भाव में होगी जिस भाव से महाराज जी भगवान को प्रेम करते हैं। फिर भी कोई जीव अपनी रुचि के अनुसार कोई अन्य भाव माँगे तो मिल जायेगा। किसी भी भाव के साधक को कृपालु दरबार में निराश होने की आवश्यक्ता नहीं है।

जय कृपालु सखी! राधे राधे !

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