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भक्ति में जीव का अधिकार

श्रीराधाभावमयी भक्ति में जीव का अधिकार नहीं है। श्रीराधा तो महाभाव स्वरूपा श्री कृष्ण की ह्लादिनी शक्ति हैं । फिर तटस्था शक्ति जीव किस प्रकार की भक्ति का अधिकारी है?  उसे श्रीराधाभाव की अनुगत्यमयी सेवा का अधिकार प्राप्त है । जीव श्रीकृष्ण का नित्य दास है। दास का कभी स्वतंत्र सेवा में अधिकार नहीं हो सकता । श्रीराधा एवं ब्रजगोपीगण की श्रीकृष्ण सेवा स्वातंत्र्यमयी है । उनकी भाँति श्रीकृष्ण की स्वातंत्र्यमयी  सेवा में जीव का अधिकार कदापि नहीं है । वह तो बस इनकी अनुगता दासी रूप में इनकी श्रीकृष्ण प्रीति विधानोपयोगी लीला में अनुकूलता हेतु तत्पर रहकर श्रीकृष्ण सेवा कर सकता है ।

 इस अनुगत्यमयी सेवा में जो सुख है, वह अतुलनीय है। रहस्य की बात यह है कि श्री ब्रजसुंदरीगण श्रीकृष्ण मिलन में जो सुख प्राप्त करती है, उससे भी कई गुनाधिक सुख आनुगत्यमयी सेवा में प्राप्त होता है । इस प्रेमा भक्ति की एक विशेषता यह भी है कि इसमें ऐश्वर्यज्ञान का सर्वथा अभाव पाया जाता है । 
चूंँकि ऐश्वर्यज्ञान से प्रीति शिथिल हो जाती है, अंत: ब्रजसुंदरीगण की रागात्मिका भक्ति में ऐश्वर्यज्ञान किंचित भी नहीं है । ऐश्वर्यज्ञान मिश्रित प्रीति या भक्ति से चारों प्रकार की मुक्तियांँ  तो प्राप्त हो सकती है, परंतु ब्रजभाव की सेवा नहीं  । प्रेमाभक्ति में परम निष्कामता है, आत्मसुख की गंधमात्र भी नहीं है । केवल श्रीकृष्ण सुख संपादन करना ही इसका तात्पर्य है।

 इसी ब्रजभाव की श्री कृष्णसुखैकतात्पर्यमयी सेवा के आदर्श स्थापन तथा शिक्षार्थ स्वयं ब्रजेन्द्रनंदन श्रीकृष्ण, चैतन्य के रूप में जीवों को शिक्षा प्रदान करने के लिए भक्ति का आचरण करके दिखा रहे हैं , ताकि इस सर्वोत्कृष्ट भक्ति की शिक्षा सम्यक् प्रकार से प्रदान की जा सके । यहां उनके स्वयं अवतरण का कारण यह है कि युगधर्म श्रीकृष्ण-नाम-संकीर्तन का प्रचार तो अंशावतार अथवा युगावतार द्वारा ही हो सकता है , परंतु ब्रजप्रेम केवल स्वयं भगवान श्री कृष्ण प्रदान कर सकते हैं । जिस ब्रजप्रेम एवं आनुगत्यमयी भक्ति को प्रदान करने के लिए स्वयं श्रीकृष्ण श्रीकृष्णचैतन्य रूप से नवदीप में अवतीर्ण हुए थे , उसी परम दुर्लभ प्रेमाभक्ति को वर्तमान युग में श्री कृपालु जी महाराज प्रदान कर रहे हैं।
-पुज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी ।

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