[नोट - इस पोस्ट का उद्देश्य केवल पाठकों को उन बिन्दुओं पर तर्क वितर्क करने के लिए किया जा रहा है जो अभी भी इन बातों से अनभिज्ञ हैं। प्रस्तुत लेख का आधार विभिन्न माध्यमों और सामग्रियों से प्राप्त जानकारी के अनुसार दिया जा रहा है किसी व्यक्ति विशेष एवं समुदाय को ठेस पहुंचाना का कोई उद्देश्य नहीं है]
इस्लाम के आने से पहले,
अरब शब्द संस्कृत के अर्व का अपभ्रंश है जो पहले अरव फिर और फिर अरब हो गया अर्व का मतलब घोड़ा होता है सर्वविदित है कि अरब के घोड़े प्रसिद्ध हैं
अरब में जिस देवता की पूजा की जाती थी,
उसका नाम था हुबल।
यहाँ आपको गौर करना पड़ेगा, कि हुबल के सर पर चंद्रमा है, जो हिंदुओं के आराध्य देवो के देव महादेव के सर पर भी विराजमान है।
600 AD से पूर्व वहाँ 3 देवियों की भी पूजा की जाती थी, जिनको वहाँ की लोकल भाषा में अल अज़ा, अल लत, और मीनत कहा जाता था।
इन 3 देवियों के हाथ आशीर्वाद मुद्रा में उठे हुए हैं...
और शेर नीचे विद्यमान है।
अब जरा हमारी सनातनी देवियों को देखिए।
आपने गौर किया होगा, कि मेक्का, जहाँ काबा स्थित है, वहाँ दुनिया भर के मुसलमान एक काले पत्थर के इर्द गिर्द चक्कर लगाने जाते हैं।
कोई मुझे बताए, कि ये शिवलिंग के इर्द गिर्द चक्कर लगाने से कैसे अलग है?
काबा के पत्थर और शिवलिंग में कई समानताएं हैं।
हमारे यहाँ साष्टांग प्रणाम की रीति है, तो इस्लाम में भी सजदे की रीति है।
हज़रत मुहम्मद का जन्म उसी कबीले में हुआ था, जहाँ हुबल को भगवान के रूप में पूजा जाता था।
कबीले के सरदार से मुहम्मद साहब का झगड़ा हो गया, जिसका परिणाम हुआ युद्ध , और मुहम्मद और उसके अनुयायियों ने कबीले के सरदार को मार डाला, और सारी मूर्तियाँ क्षत विक्षत कर दी।
लेकिन लड़ाई कर के आप कबीले के सरदार तो बन सकते हो, पर लोगों के दिलों दिमाग से वो हज़ारों वर्ष पुरानी पूजा पद्धति को कैसे नष्ट करोगे?
बहुत कोशिशों के बाद भी इस्लाम में कई ऐसी चीज़ें हैं, जो गवाही देती हैं, कि ये सनातन धर्म से ही उत्पन्न हुआ है।
अब वो अलग बात है कि इस्लाम ये बात ना माने, क्योंकि यदि आप किसी को दबाने के लिए पिछले 1400 साल से लगे हुए हों...
आज नहीं तो कल ये मानना ही पड़ेगा, कि उनके पूर्वज मक्का में भी शिव की ही आराधना करते थे...
और वो सब भी आज भी, जिस पत्थर को पूजते हैं, वो शिवलिंग ही है।
मुसलमानों के सर्वोच्च तीर्थ मक्का के बारे में कहते हैं कि वह मक्केश्वर महादेव का मंदिर था। वहाँ काले पत्थर का विशाल शिवलिंग था जो खंडित अवस्था में अब भी वहाँ है।
हज के समय संगे अस्वद (संग अर्थात पत्थर, अस्वद अर्थात अश्वेत अर्थात काला) कहकर मुसलमान उसे ही पूजते और चूमते हैं।
इसके बारे में प्रसिद्ध इतिहासकार स्व0 #पीएनओक ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ में बहुत विस्तार से लिखा है।
अरब देशों में इस्लाम से पहले शैव मत ही प्रचलित था।
इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उम्र बिन हश्शाम द्वारा रचित शिव स्तुतियाँ श्री लक्ष्मीनारायण (बिड़ला) मंदिर, दिल्ली की ‘गीता वाटिका’ में दीवारों पर उत्कीर्ण हैं।।
यह स्थान वर्तमान में सऊदी अरब के मक्का नामक स्थान पर स्थित है सऊदी अरब के पास ही यमन नामक राज्य भी है इसका उल्लेख श्रीमद्भागवत में मिलता है श्री कृष्ण ने कालयवन नामक राक्षस के विनाश किया था यह यमन राज्य उसी द्वीप पर स्थित है।
भगवान शिव के जितने रूप और उपासना के जितने विधान संसार भर में प्रचलित रहे हैं, वे अवर्णनीय हैं।
हमारे देश में ही नहीं, भगवान शिव की प्रतिष्ठा पूरे संसार में ही फैली हुई है।
उनके विविध रूपों को पूजने का सदा से ही प्रचलन रहा है।
शिव के मंदिर अफगानिस्तान के हेमकुट पर्वत से लेकर मिस्र, ब्राजील, तुर्किस्तान के बेबीलोन, स्कॉटलैंड के ग्लासगो, अमेरिका, चीन, जापान, कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा तक हर जगह पाए गए हैं।
अरब में मुहम्मद पैगम्बर से पूर्व शिवलिंग को 'लात' कहा जाता था।
मक्का के कावा में संग अवसाद के यप में जिस काले पत्थर की उपासना की जाती रही है, भविष्य पुराण में उसका उल्लेख मक्केश्वर के रूप में हुआ है। इस्लाम के प्रसार से पहले इजराइल और अन्य यहूदियों द्वारा इसकी पूजा किए जाने के स्पष्ट प्रमाण मिले हैं।
ऐसे प्रमाण भी मिले हैं कि हिरोपोलिस में वीनस मंदिर के सामने दो सौ फीट ऊँचा प्रस्तर लिंग था।
यूरोपियन फणिश और इबरानी जाति के पूर्वज बालेश्वर लिङ्ग के पूजक थे।
बाईबिल में इसका शिउन के रूप में उल्लेख हुआ है।
काबा से जुड़ी एक और हिन्दू संस्कृति परम्परा है “पवित्र गंगा” की अवधारणा।
जैसा कि सभी जानते हैं भारतीय संस्कृति में शिव के साथ गंगा और चन्द्रमा के रिश्ते को कभी अलग नहीं किया जा सकता। जहाँ भी शिव होंगे, पवित्र गंगा की अवधारणा निश्चित ही मौजूद होती है।
काबा के पास भी एक पवित्र झरना पाया जाता है, इसका पानी भी पवित्र माना जाता है, क्योंकि इस्लामिक काल से पहले भी इसे पवित्र (आबे ज़म-ज़म) ही माना जाता था।
आज भी मुस्लिम श्रद्धालु हज के दौरान इस आबे ज़मज़म को अपने साथ बोतल में भरकर ले जाते हैं।
ऐसा क्यों है कि कुम्भ में शामिल होने वाले हिन्दुओं द्वारा गंगाजल को पवित्र मानने और उसे बोतलों में भरकर घरों में ले जाने, तथा इसी प्रकार हज की इस परम्परा में इतनी समानता है? इसके पीछे क्या कारण है।
किसी मुस्लिम ने मुझे बताया कि ज़म" -ज़म झरना नही है...वो एक कुआँ है जनाब "
18x14 फ़ीट और 18 मीटर गहरा है...
4000 साल पुराना है...ना कभी सूखा...ना कभी स्वाद बदला...
आज तक कभी भी कुऐं में ना कोई काई जमी और ना ही कोई पेड़ उगा...ना आज तक उस पानी में कोई बैक्टिरिया मिले...
युरोपियन लैबोरेट्री में चेक हो चुका है उन्होने इसे पीने लायक घोषित कर दिया है।
ये छोटा सा कुआँ लाखों लोगो को पानी देता है...
8000 लीटर प्रति सेकेण्ड पानी की ताकत वाली मोटर 24 घण्टे चलती है....
और सिर्फ़ 11 मिनट बाद पानी का लेवल बराबर हो जाता है
ये वाण गंगा है जम जम का जल ..
साभार स्त्रोतों से..........
#वेंकटेश_पंडित_एवं_हिन्दी_ज्ञान_के_ब्लॉग_से
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राधे राधे ।