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संसार को सुधारने का ठेका आपका नही है।

दुनिया के सुधार और उद्धार की चिंता छोड़कर पहले अपना सुधार और उद्धार करो। तुम्हारा सुधार हो गया तो समझो कि दुनिया के एक आवश्यक अंग का सुधार हो गया। यदि ऐसा न हुआ, तुम्हारे हृदय में उच्च भावों का संग्रह नहीं हो सका, तुम्हारे क्रियाएं राग-द्वेष-रहित, पवित्र नहीं हुई और तुमने दुनिया के सुधार का बीड़ा उठा लिया, तो याद रखो तुमसे दुनिया का सुधार होगा ही नहीं। यह मत समझो कि तुम लोकसेवक हो, लोक सेवा करते हो तो फिर तुम्हारे व्यक्तिगत चरित्र से इसका कोई संबंध नहीं है।  तुम्हारा चरित्र कलुषित या दूषित होगा तो तुम लोकसेवा कर नहीं सकते। लोकसेवा तुम उस सामग्री से ही तो करोगे, जो तुम्हारे पास है।  दुनिया के सामने तुम वही चीज रखोगे, उसको वही पदार्थ दोगे,जो तुम्हारे अंदर है। दुनिया को तुम स्वभाविक ही वही क्रिया से सिखलाओगे, जो तुम करते हो। इससे दुनिया का कल्याण नहीं कभी नहीं होगा।

सुनने वाले लाखों है, सुनाने वाले हजारों हैं, समझने वाले सैकड़ों है, परंतु करने वाले कोई विरले ही हैं सच्चे पुरुष वे ही हैं और सच्चा लाभ भी उन्हीं को प्राप्त होता है, जो करते हैं।

उपदेश करो अपने लिए, तभी तुम्हारा उपदेश सार्थक होगा। जो कुछ दूसरों से करवाना चाहते हो, उसे पहले स्वयं करो; नहीं तो तुम्हारे उपदेश नाटक के अभिनय के सिवा और कुछ भी नहीं है।

विचार-स्वातंत्रय का अर्थ मनमाना आचरण करना नहीं है। `मेरे मन को जो अच्छा लगेगा, मेरी इंद्रियाँ जिसमें सुख मानेगी, मैं वही करूंगा, किसी भी नियम-संयम में, बंधन से नहीं रहूंँगा।किसी की हानि या लाभ, अपना भी नैतिक पतन हो या उत्थान, मैं इसकी परवाह नहीं करूंँगा। मेरी स्वतंत्रता के आगे किसी का भी कोई मूल्य नहीं है' -- ऐसा मानना विचार-स्वातंत्रय नहीं है। यह तो यथेच्छाचार  है और प्रत्यक्ष ही मन-इंद्रियों की गुलामी है। जो मन-इन्द्रियों का गुलाम बनकर उनकी तृप्ति के लिए विवेकशून्य यथेच्छ आचरण करता है, वह स्वतन्त्र कहां है, असल में तो वही परतन्त्र है। जो शरीर से परतन्त्र है, पर मन-इन्द्रियों पर  जिसका अधिकार है; जो उसके वश में नहीं है, पर वे ही जिसके वश में हैं, वही वस्तुतः स्वतंत्र है। इस स्वतंत्रता के लिए नियमों की आवश्यकता है, संयम की आवश्यकता है।  एवं अन्दर छिपे रहनेवाले काम-क्रोध, ईषर्या-असूया,रग-द्वेष, दम्भ हिंसा  आदि शत्रुओं के पुर्ण दमन की आवश्यकता है। जो मन इंद्रियों को दोषों से रहित और नित्य संयम के बंधन से रखता है, वही बंधन से छूटता है। यह बंधन मुक्ति के लिए होता है और इस बंधन से छूटना नित्य-बंधन में बँधना होता है।*

 श्रीभाईजी
 पुस्तक --- भाईजी चरितामृत(भाग १३)

पृष्ठ संख्या:--- ३११,३१२

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