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*क्रोध से अपना और दूसरों का अनिष्ट ही होता हैं*

क्रोध को भी हम जीतें ।‌ क्रोध अपने से कमजोर पर आता है । हमारा रोष निकलेगा बच्चों पर , नौकरों पर तथा जिनसे हमें हानि की संभावना नहीं है ,उन पर । किंतु जिसके निमित्त से क्रोध निकला हों ; उसकी उस बुराई को तो वह दूर करने से रहा उल्टे वह बुराई एक बार दबकर अन्तश्चेतनामे वापस जाकर गहरी बन जायेगी । अत एव क्रोध से अपना और दूसरों का अनिष्ट ही होता है ।
सोचें , क्या हमने सबके मंगल का ठेका ले रखा है और हमारे क्रोध करने से ही उसका मंगल हो जायेगा ? उसकी बुराई मिट जायगी ? किंतु यह भ्रम है कि मैं डाॅंट डपटकर किसी को सुधार लूॅंगा । अपने बच्चों पर हम प्यार भरा शासन कर सकते हैं ,पर उसमे क्रोध की गंध भी नहीं आनी चाहिए । हम जान भी नहीं पाते ,उन -उन  अवसरों पर उन बच्चों का नौकरों का सुधार तो होता नहीं , उल्टे हमारी आस्तिकता की नींव भूकंप की भाॅंति हिलने लगती हैं ,जो अभी अभी आगे आने वाली विपत्तियों में हमें और भी खिन्न बना देती है । इस दोष को सर्वांश में जितना शीघ्र से शीघ्र हम कुचल सकें कुचल डाले । नहीं तो उपासना का प्रासाद इस वर्तमान नींव पर निर्मित नहीं हो सकेगा । क्रोध की गंध भी उस उपासना के महल की दीवारों में दरार डाल ही देती हैं । अत एव खूब सा्वधानी से व्रत लेकर इस दोष पर हम काबू पालें ।

-राधा बाबा

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