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मानव देह की महत्वता को समझो

सात प्रश्न किये गये हैं रामायण में। आप लोगों ने सुने होंगे। तो पहला प्रश्न यही था-

*प्रथमहि कहहु नाथ मतिधीरा सबते दुर्लभ कवन सरीरा।*

इसका उत्तर दिया गया-

*नर तन सम नहिं कवनिउ देही। जीव चराचर याचत जेही॥*

*न मानुषाच्छेष्ठतरं हि किञ्चित्॥* (महाभारत)

देवता लोग चाहते हैं-

*दुर्लभं मानुषं जन्म।* (नारद पुराण) 

ये दुर्लभ है। स्वयम्भू मनु के पुत्र प्रियव्रत उनके पुत्र आग्नीध्र, उनके पुत्र नाभि उनके पुत्र ऋषभ- भगवान् के अवतार, उनके सौ पुत्र। ऋषभ के सौ पुत्र। उनमें एक तो भरत हैं जिनके नाम से ये भारत बना है। आप सुनते हैं नाम अपने देश का। ये ऋषभ के बड़े पुत्र के नाम से भारत नाम पड़ा है। पहले इसका नाम था अजनाभवर्ष। फिर भरत के कारण भारतवर्ष नाम पड़ा। और ८१ पुत्र कर्मकाण्डी हो गये और नौ पुत्र राजा हो गये- और नौ योगीश्वर हुये।

*कविर्हररिरन्तरिक्षः प्रबुद्धः पिप्पलायन:।*  
*आविर्होत्रोऽथ द्रुमिलश्चमसः करभाजनः॥* 
(भाग. ११-२-२१) 

ये नौ योगीश्वर हैं। ये सदा परमहंस, मायातीत। नंगे रहते थे और त्रैलोक्य में कहीं भी जा सकते थे आकाश मार्ग से। तो एक बार एक निमि विदेह थे राजा। वह यज्ञ करा रहे थे बहुत बड़ा। तो ये नौ योगीश्वर घूमते टहलते उनके यज्ञ में पहुँच गये। उन्होंने पूजा पूजा की। इसके बाद निमि ने प्रश्न किया- 

*दुर्लभो मानुषो देहो देहिनां क्षणभंगुरः।* 
*तत्रापि दुर्लभं मन्ये बैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥*
(भाग. ११-२-२९) 

*बहुत ध्यान से समझिये। इसी मानवदेह की इम्पॉर्टेन्स अगर हमारी बुद्धि में ठीक ठीक आ जाय तो हम लोग जो लापरवाही कर रहे हैं जान करके भी- हमको क्या करना है? यह जान कर भी हम नहीं करते हैं। तो अगर उसकी। इम्पॉर्टेन्स अगर मस्तिष्क में रियलाइज करो तो अपने आप साधना करोगे।* 

तो निमि ने प्रश्न किया कि यह मनुष्य का शरीर दुर्लभ है, करोड़ों जन्मों बाद यह मिला है। कल मैंने बताया था न, वेद के अनुसार करोड़ों जन्म घूमना पड़ता है ८४ लाख में, तब कहीं भगवान् यह मानव देह देते हैं। लेकिन *'क्षणभंगुर'* इसमें एक दोष भी है। आप लोग कहीं फूल जायँ, हाँ हाँ हमको ऐसा शरीर मिला है जो देवताओं को नहीं मिला। इस शरीर में एक बहुत बड़ा गुण है और एक बहुत बड़ा अवगुण है। क्या? इसमें ज्ञान शक्ति बहुत है। तो अगर उस ज्ञान शक्ति का सदुपयोग न किया गया तो दुरुपयोग भी ए वन क्लास का होगा। अर्थात् अगर उसको सही दिशा में नहीं चलाया तो गलत दिशा में भी तेज चलेगा। देखो, चोरी करने की कितनी तरकीबें हम लोग निकाल लेते हैं। बैंक से चोरी हो जाती है। एस. पी., डी.आई.जी., आई.जी. की कोठी से चोरी हो जाती है। आप लोगों की भी कभी जेब वेब कटी हो, जानते होंगे कितनी तरकीबें हैं। मनुष्य की बुद्धि इतनी तेज है कि अगर वो सही दिशा में नहीं मोड़ोगे तो गलत दिशा में भी भयंकर पतन करायेगी। है। तो निमि कहते हैं ये क्षणभंगुर है उधार न करो-

*न श्व: श्व उपासीत को हि पुरुषस्य श्वो वेद।*
(वेद)

वेद कहता है- कल करेंगे कल करेंगे ऐसा उधार मत करो। कल का दिन आवे न आवे, तुरन्त करो। 

वेद कहता है-

*इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति न चेदिहावेदीन्महती विनष्टिः।*
(केनो. २-५) 

अरे मनुष्यों ! तुमको ऐसा दुर्लभ शरीर मिला है तो देर मत करो। उसको जानो नहीं तो महती विनष्टिः । ८४ लाख योनियों में भटकना पड़ेगा। बहुत कष्ट भोगना पड़ेगा- दैहिक, दैविक, भौतिक ताप वर्तमान काल में भी भोग रहे हो।

तीन प्रकार के ताप होते हैं- एक ताप आध्यात्मिक, एक आधिदैविक, एक आधिभौतिक। आध्यात्मिक ताप दो प्रकार का होता है- एक शारीरिक कष्ट और एक मानसिक। शारीरिक कष्ट तो आप जानते ही हैं। अनेक प्रकार के रोग होना। और मानसिक कष्ट हैं काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य, ईर्ष्या, द्वेष- ये सब बीमारियाँ जो मन की हैं, ये मानसिक ताप हैं। तो शारीरिक ताप और मानसिक ताप दोनों का एक नाम आध्यात्मिक ताप। और आधिभौतिक ताप- जो बाहर से मिलता है किसी के द्वारा कोई हमें कष्ट देता है, दुष्ट।

*खल बिनु स्वारथ पर अपकारी।* 

और तीसरा है सर्दी, गर्मी ये अनेक प्रकार के सीज़न के द्वारा जो कष्ट मिलता है। तो तीन ताप जो वर्तमान में आप भोग रहे हैं ये चौरासी लाख योनियों में तो कई गुना यही ताप आपको मिलेंगे। यहाँ तो आपको सर्दी लगी, कम्बल ओढ़ लिया। अब कुत्ते को, गधे को, गाय को, भैंस को सर्दी लगी क्या करेगा? काँप रही है बीमार हो गई, कोई मर गई, तो कितना उनको इन तीनों तापों का ताप होगा, दु:ख होगा? तो वेद कहता है- उधार न करो। जल्दी करो। अनन्त बार आप लोगों को सन्त मिले हैं। अनन्त जन्मों में अनन्त बार भगवान् मिले हैं, अनन्त जन्मों में लेकिन बस एक दोष है, उधार कर दिया- करेंगे, करेंगे, करेंगे। रिटायर्ड हो जायँ तब फिर देखो यही करेंगे। अब रिटायर होने के बाद सर्विस ढूँढ रहे हैं। अब चल फिर नहीं सकते, सर्विस नहीं कर सकते, घर में बैठे हैं- बीबी बच्चों से लड़ रहे हैं। कहीं नोबल पढ़ रहे हैं। अरे भई कुछ करो तो। अरे भई देखो ऐसा है कि वो जब करायेगा तभी तो होगा। ये वेदान्त की बातें करते हैं। तो वेद कहता है- ये सब न करो जल्दी करो। उसको जानो। अच्छा, कैसे जानें?

*ना वेद विन्मनुते तं बृहन्तम्।* 
(शाठ्यायनी उपनिषद् - ४) 

वेद के द्वारा उसको जानो। यानी उसी की वाणी से उसको जानो। वेद उसकी
वाणी है-

*निःश्वसितमस्य वेदाः।* (वेद)

*जाकी सहज श्वॉस श्रुति चारी।* 

तो वेदों से पूछो। हाँ वेद महाराज ! बताओ। तो वेद ने कहा देखो भई मुझको पढ़ कर तुम नहीं समझ सकते-

*वेदा ब्रह्मात्मविषयास्त्रिकांडविषया इमे।* 
(भाग. ११-२१-३५)

वेदव्यास ने भागवत में कहा कि ये ब्रह्म के समान है वेद। जैसे ब्रह्म है ऐसे वेद है। और ब्रह्म क्या है-

*इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः।* *मनसस्तु परा बुद्धिर्बुद्धेरात्मा महान् परः॥*

*महत: परमव्यक्तमव्यक्तात् पुरुषः परः।* 
*पुरुषान्न परं किञ्चित् सा काष्ठा सा परा गतिः।।* 
(कठोप. १-३-१०, ११)

यानी इन्द्रियों से परे इन्द्रियों के विषय, उससे परे मन, उससे परे बुद्धि, उससे परे भगवान् । बुद्धि से परे है-

*इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।* 
*मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः॥*
(गीता ३-४२) 

*राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी।*

इन्द्रिय मन बुद्धि से परे है-

*राम स्वरूप तुम्हार वचन अगोचर बुद्धि पर।* (रा. मा.) 

वह बुद्धि से परे है। इसलिये वेद भी बुद्धि से परे है। अलौकिक वाणी है। इस का अर्थ अलौकिक पुरुष ही समझ सकता है। यानी महापुरुष और भगवान्। तो फिर? भगवान् तो मिलेंगे नहीं। किससे पूछें वेद का अर्थ ? तो महापुरुषों से पूछो-

*उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत॥* 
(कठोप. १-३-१४) 

वेद कह रहा है। उठो, जागो मनुष्यों! तुमको मानव-देह मिला है। और
*"प्राप्य वरान्"* महापुरुष के पास जाओ प्रैक्टिकल मैन श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ महापुरुष के पास जिसने भगवान का साक्षात्कार किया हो, ऐसे महापुरुष के पास जाओ। कान फूंकने वाले के पास नहीं। फिर उनसे समझो वेद का अर्थ। यानी वेद वेद्य भगवान् क्या है? महापुरुष के पास जाओ। ऐसे तत्त्वज्ञान नहीं होगा। और वह महापुरुष दो योग्यताओं से युक्त हो, ऐसा महापुरुष चाहिये। 

*परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन।* 
*तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥* 
(मुण्डको. १-२-१२) 

श्रोत्रिय यानी थियोरिटिकल मैन, शास्त्र वेद का पूरा ज्ञान हो और दूसरे को करा सके। इतनी नॉलेज हो और फिर भगवान् को प्राप्त कर चुका हो। ये ब्रह्मनिष्ठ है। श्रोत्रिय भी हो, ब्रह्मनिष्ठ भी हो- ऐसे महापुरुष के पास जाओ फिर समझो वो क्या है ? भगवान क्या है। ये वेद कह रहा है। अरे गीता तो पढ़ी होगी आपने-

*तद्वद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।* *उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः॥* 
(गीता ४-३४) 

अर्थात् वो श्रोत्रिय भी हो और ब्रह्मनिष्ठ भी हो ऐसे गुरु के पास जाओ। फिर उनकी सेवा करो, फिर उनके शरणागत हो, फिर उनसे पूछो। *'तद्विद्धि प्रणिपातेन'* शरणागत हो और परिप्रश्नेन- जिज्ञासु भाव से प्रश्न करो और सेवया- सेवा करके उनको प्रसन्न करो। ये तीन शर्ते हैं। गीता कह रही है। भागवत से समझ लीजिए-

*तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम्।* 
*शाब्दे परे च निष्णातं, ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्॥* 
(भा. ११-३-२१)

शाब्दे- ये थ्योरी में। परे ये प्रैक्टिकल भी हो। *'निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम्।'* अर्थात शाब्दिक ज्ञानी प्लस अनुभव ज्ञानी दोनों प्रकार का जिसको अनुभव प्राप्त हो ऐसे महापुरुष के पास जाओ। क्यों?

*सो बिनु संत न काहू पाई।*

बिना गुरु के किसी को भी वो भगवान् नहीं मिले न उनकी भक्ति मिली है। किसी को भी नहीं। वो ब्रह्मा हो, विष्णु हो, शंकर हो, इन्द्र हो, कुबेर हो। कोई हों-

*गुरु बिनु होई कि ज्ञान।* 
ज्ञान नहीं हो सकता। अरे ये तो बड़ी-बड़ी बातें हैं। आप लोगों ने पढ़ा होगा ए.बी.सी.डी.? हाँ पढ़ा है। क ख ग घ? हाँ पढ़ा है। कैसे पढ़ा है? क्या पैदा होते ही आप पढ़ लिये, बोल लिये? नहीं जी वो टीचर आया था एक, उसने पढ़ाया था। क्या पढ़ाया था? उसने कहा देखो ऐसे लिखो 'क' हमने लिखा। उन्होंने कहा इसका नाम है 'क'। क्यों? क्यों इसका नाम 'क' है। अरे पागल है ये लड़का। ये क्या पड़ेगा? ऐसे बोल रहा है। क्यों इसका नाम है 'क' ? अरे ! मैं जो कह रहा हूँ उसको याद करो। ऐसी शक्ल होती है क की। और ये नाम होता है इसका क। चुपचाप मान लो। अन्धे बन कर मान लो। और इंग्लिश भाषा वाले तो जानते ही है कितने साइलैन्ट होते हैं । चुपचाप मान लो बोलो मत। लिखो। ये शरणागत हैं आप उस टीचर के। अपनी बद्धि जरा भी नहीं लगाते। नहीं तो नम्बर समाप्त हो जाएंगे फेल हो जायेंगे आप अपनी बुद्धि लगायेंगे तो। बिना गुरु के आप क का ज्ञान नहीं कर सकते, उसके शरणागत होते हैं। डाक्टर के पास आप गये। डाक्टर साहब! हाँ हमारे सिर में बहुत दर्द होता है। और क्या होता है ? लो ये दवा लो। ये दो बूंद दवा एक चम्मच पानी में डालकर पी लेना। डॉक्टर साहब! इतने बड़े शरीर में दो बूंद दवा? आपका दिमाग तो ठीक है? अरे। ये पागल आदमी है। ये दवा नहीं करा सकता। निकालो बाहर इसको। अरे! मैं जो कहता हूँ चुपचाप मान लो। सरैण्डर करो। अपनी बुद्धि का प्रयोग न करो। तो गुरु के बिना महापुरुष के बिना तत्त्वज्ञान नहीं हो सकता। कोई हो- 

*गुरु बिनु भवनिधि तरे न कोई।* 
ज्यों बिरंचि शंकर सम होई॥* 

ब्रह्मा, शंकर कोई हो। अब ये बड़ी प्रॉब्लम आ गई कहाँ ढूँढ़, कैसे ढूँढे ?

गुरु का ज्ञान होना कोई साधारण बात तो नहीं है। जैसे कोई एम.ए.का टीचर हो, सर्टिफिकेट वगैरह न दिखावे और कहे मैं एम.ए. हूँ। तुमको कौन सा क्लास पढ़ना है? हाई स्कूल। बैठो मैं पढ़ा दूँ। तो वो एम.ए. वाला ही पढ़ा सकता है हाई स्कूल, इन्टर, बी.ए., एम. ए., ए.बी.सी.डी. न जानने वाला एम.ए. कैसे पढ़ायेगा? असम्भव। तो वो गुरु जिसके शरणागत होकर हम जानना चाहते हैं ब्रह्म को, भगवान् को, पाना चाहते हैं वो सैन्ट परसैन्ट महापुरुष हो। पर हम नहीं जान सकते, हम नहीं तौल सकते, हम नहीं नाप सकते। जैसे भगवान् बुद्धि से परे हैं ऐसे ही महापुरुष भी बुद्धि से परे हैं क्योंकि दोनों एक हैं-*

*#तस्मिंस्तज्जने_भेदाभावात्।*
(ना. भ. सू. ४१) 

नारद जी ने अपने भक्ति-सूत्र में लिखा कि भगवान् और महापुरुष में भेद नहीं होता। वैसे तो महापुरुष को भगवान् से बड़ा माना गया है। लेकिन बड़ा वड़ा कुछ नहीं है वो। जितनी पावर भगवान के पास है नित्य सत्ता, सर्वज्ञता, अनन्त आनन्द, वो महापुरुष के पास भी है। इसलिये बराबर है। इसीलिये वेद कहता है-

*यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।*
*तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः॥* 
(श्वेता. ६-२३)

 ऐ मनुष्यों! जैसी भक्ति भगवान् के प्रति हो वैसी ही भक्ति सैन्ट परसैन्ट गुरु के प्रति हो।

तो फिर हम जानें कैसे? गुरु को, महापुरुष को । पहिचानें कैसे? और बिना पहिचाने कहीं गलत पाखण्डी महापुरुष क शरण में चले गये तो फिर तो फिर तो-

*अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः।*
(मुण्डको. १-२-८)

जैसे अन्धे का हाथ अन्धा पकड़ करके चले तो गर्त में गिरेगा। यही हो रहा है अनादिकाल से। देखिये बहुत सावधानी से समझिये। ज्ञान में दो रीज़न बताया तुलसीदास जी ने-

*गुरु बिनु होइ कि ज्ञान, ज्ञान कि होई विराग बिनु।*

गुरु के बिना ज्ञान नहीं हो सकता प्लस वैराग्य के बिना ज्ञान नहीं हो सकता। क्यों? मान लो आपको सही गुरु मिल गया। हाँ आप शरणागत नहीं हैं। अपनी बुद्धि को गुरु की बुद्धि से जोड़ा नहीं, अपनी बुद्धि प्राइवेट रख रहे हो। अपनी बुद्धि लगा रहे हो बीच बीच में, सैन्ट परसैन्ट सरैण्डर नहीं किया। तो क्या करेगा गुरु?

*मूरख हृदय न चेत यदि गुरु मिलहिं विरञ्चि सम।* 

ब्रह्मा भी गुरु मिले तो उस व्यक्ति का कल्याण नहीं हो सकता जो शरणागत नहीं है, सैन्ट परसैन्ट। बिजली घर में आप चले जायें और सब तारों का हाल न जानें और एक तार जो नंगा है उसको पकड़ लें तो जीरो बटे सौ हो जायेंगे। सैन्ट परसैन्ट शरणागति करनी पड़ेगी। थोड़ी मोड़ी नहीं। तो फिर हम कैसे पहिचानें? और बिना पहिचाने हमारा काम बनेगा नहीं और पहिचानने का मतलब, मानना हृदय से- उसको श्रद्धा कहते हैं- श्रद्धा। सबसे पहली चीज़ श्रद्धा है। उसके बाद महापुरुष का मिलन, उसके बाद सत्संग। सत् माने महापुरुष, संग माने मन का सरैण्डर, मन, बुद्धि उसको दे दिया। अब वह जैसा कहेगा वैसा ही करेंगे।

कितना बड़ा पापी था वाल्मीकि, कि राम नहीं कह सका। क्यों जी मरा कहा? हाँ। तो क्यों मरा में भी तो वही म और र दो अक्षर हैं। अगर कोई 'म' और रा कह सकता है तो राम क्यों नहीं कह सकता? सोचा, सोचा कभी आप लोगों ने बुद्धि से? ये कैसे पॉसिबिल है? या तो गूँगा हो या तो 'म' बोल ही न सके। 'रा' बोल ही न सके। मरा मरा मरा तो खूब बोल रहा है और राम राम क्यों नहीं बोल सकता? इतने अधिक उसके पाप थे कि राम नहीं बोल सका। (ध्यान दो।) लेकिन गुरु की शरणागति कितनी थी? आप सोच नहीं सकते। मरा मरा कहते रहना जब तक हम लौट कर न आवें। चुप। आप लोगों से कोई गुरु ऐसा कहे, 'आप कब लौट कर आयेंगे?' तुरन्त क्वेश्चन करेंगे। आप कहते हैं जब तक लौट कर न आवे तो कब लौट कर आयेंगे आप बताइये तो हमको। हम ऐसे ही पागल की तरह मरा मरा करते रहें? बाल्मीकि ने कुछ नहीं पूछा। कम्पलीट सरैण्डर। और अपना साधना करता रहा। गुरु हैल्प करते रहे। और महापुरुष बन कर निकला बल्मीक से- ये शरणागति है। हम लोग संसार के छल कपट वाले एटमॉसफियर में छल कपट से ऐसे भर गये हैं, हमारी बुद्धि में वह भर गया है कि भगवान् आवें तो, महापुरुष मिलें तो, ऐसा है कि हम भी तो कुछ समझते हैं। अरे! तुम अपने आप को तो समझ नहीं सके । महापुरुष और भगवान को क्या समझोगे?

आप किसी से पूछो- आपका परिचय? जी मैं इलाहाबाद का कलैक्टर हूँ। मैं उपाधि नहीं पूछ रहा हूँ, मैं आपको पूछ रहा हूँ। जी जी मेरा नाम नन्दकिशोर है। नाम? अरे नाम नहीं, आपको पूछ रहा हूँ। अरे ! मैं मनुष्य हूँ। मनुष्य ? ये तो आपकी बॉडी है, शरीर है। मैं आपको पूछ रहा हूँ। क्या अजीब आदमी है। और क्या हैं आप? आप अपने आप को नहीं जानते तो आपको पागलखाने में रहना चाहिये। बाहर कैसे हैं? जो अपने को न पहिचाने उसको लोग पागलखाने में रख देते हैं। बन्द कर देते हैं, तुम अपने आप को नहीं जानते और बहुत कुछ जानने का दावा करते हो, महापुरुषों को पहिचान लेते हैं हम। अरे महापुरुषों को केवल भगवान् और महापुरुष पहिचान सकता है-

*भगवद रसिक रसिक की बातें रसिक बिना कोउ समुझि सकै न।*
 
*कृष्ण प्रेम जार चित्ते करे उदय। तार वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञे न बुझय॥* 

गौरांग महाप्रभु कहते हैं कि जिसके हृदय में श्री कृष्ण प्रेम प्रकट हो जाय, महापुरुष हो जाय जो, उसके वाक्य, उसकी क्रिया, उसके एक्शन कोई नहीं समझ सकता। विज्ञे न बुझय।
 
*अन्तर्वाणीभिरप्यस्य मुद्रा सुश्रु सुदुर्गम।* 

जो भीतर से ज्ञान का भण्डार भरे हैं वह भी नहीं जान सकते रसिकों को। तुम क्या जानोगे?

देखो! तुम अपने आप को पहले समझो। तुम क्या करते हो संसार में? अन्दर गड़बड़ बाहर ठीक। अन्दर से आप नहीं चाहते ये आदमी आवे हमारे घर में रात को १२ बजे, हमारी नींद खराब करे। लेकिन जैसे ही वह आदमी आता है हैलो! श्रीवास्तव जी! अरे! अरे! भई तुमको तो हम कब से परख रहे हैं। ये क्या है? धोखा। ४२०, छल कपट। और ऊपर से बड़े सुन्दर शब्द। बड़ा मीठा स्वर। ये आप लोग करते हैं न? हाँ करते हैं। इसी को उल्टा करते हैं संत लोग। अन्दर बिल्कुल ठीक और बाहर उल्टा। अन्दर मायातीत, और बाहर माया का कार्य करते हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह, भयंकर करोड़ों मर्डर १, २, ४ मर्डर नहीं। ये हनुमान जी महापुरुषों के दादा। ये अर्जुन जी महापुरुषों के दादा। क्यों जी हम किसी को गाली देते हैं तो पहले गुस्सा आता है। पहले गुस्सा आएगा मन में तब तो गाली निकलेगी। और झापड़ लगाते हैं और गुस्सा आता है। और मर्डर कर देने में तो गुस्से में पागल हो जायेंगे तभी तो मर्डर करेंगे। और हजारों मर्डर किया है अर्जुन ने। हनुमान जी ने लंका ही जला दिया। लेकिन महापुरुष है। उनका कहीं द्वैत भाव है ही नहीं। वो तो सर्वत्र श्रीकृष्ण को देख रहे हैं अर्जुन जी-

*तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युद्धय च।* 
(गीता ८-७) 

निरन्तर मेरा स्मरण करना अर्जुन। #सर्वेषु_कालेषु। एक बटे सौ सैकेण्ड को भी मन मुझसे पृथक् न हो।

*त्रिभुवनविभव हेतवेऽप्य कुण्ठस्मृतिरजितात्म सुरादिभिर्विमृग्यात्।* 
*न चलति भगवत्पदारविन्दाल्लवनिमिषार्धमपि यः स वैष्णवाग्र्यः।।*
(भागवत ११-२-५३) 

एक सैकेण्ड को भी भगवान् से मन न हटे वो महापुरुष है। तो निरन्तर भगवान् में मन है अर्जुन का "#सर्वेषु_कालेषु" और युद्ध कर रहा है। मर्डर हो रहा है।

*उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।* 
*निज प्रभुमय देखहिं जगत का सन करहिं विरोध।*

क्रोध-माया का विकार है। माया तो समाप्त हो गई हनुमान जी की। भगवान् के वो तो पार्षद हैं कभी उनके ऊपर माया नहीं आई थी। लेकिन ये सर्वत्र सीता राम को देखते हुये भी इतने मर्डर किये, ब्राह्मणों के, रावण के खानदान के। भगवान् ने अपनी डायरी में लिखा ही नहीं। क्यों? भगवान् कहते हैं- कर्म उसे कहते हैं जिसमें मन का अटैचमैन्ट हो। राग हो, द्वेष हो। ये दो में एक हो। या तो राग हो या तो द्वेष हो। उसका मन तो मेरे पास था। इसलिये मारने में शत्रुओं के प्रति न राग था, न द्वेष था। इसलिये वह कर्म नहीं है। वह जीरो में गुणा करो एक करोड़ से तो भी जीरो आयेगा।

अरे! देखो, अब होली आई है, कितने मजाक होते हैं होली पर और कितनी डिग्रियाँ मिलती हैं बड़े-बड़े काबिलों को- मूर्ख शिरोमणि वगैरह, वगैरह। और सब विभोर हो के हँसते रहते हैं। क्योंकि मंशा खराब नहीं है। अन्दर गड़बड़ नहीं है। इसलिये सब हँस देते हैं। ससुराल में कितनी गालियाँ (दूल्हे को) पहले मिला करती थीं बाकायदा ढोल बजा के और वो बैठ के धीरे-धीरे खा रहा है, चटनी चाट रहा और गाओ। क्योंकि दुर्भावना नहीं है। अन्दर भी ठीक बाहर भी ठीक। तो महापुरुषों का जो अन्दर गड़बड़ नहीं है और बाहर गड़बड़ दीखता है तो हम लोग तो बाहर वाले को देखकर ही निर्णय करते हैं। हमारी आदत है। अभ्यास है। अन्तर्यामी तो नहीं हैं हम लोग, अन्दर घुस कर देखें। ये हनुमान महापुरुष है कि नहीं है। ये अर्जुन महापुरुष है कि नहीं है। तो महापुरुषों को पहचानना ये असम्भव है जैसे भगवान को जानना असम्भव है।

*मां तु वेद न कश्चन ॥* (गीता ७-२६) 

*न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं महान्तम्॥* 
(श्वेता. ३-१९) 

वेद में भगवान् स्वयं कहते हैं- मुझे कोई नहीं जान सकता। और वही महापुरुष भगवान् एक ही शक्ति से युक्त हैं उसका नाम है योगमाया। वह '#कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं_समर्थ' है। जो चाहे करे, जो चाहे न करे, जो चाहे उल्टा कर दे। ये योगमाया की शक्ति है। भगवान् की भगवत्ता भुला देती है। और तो क्या कहा जाए। भगवान् भूल जाता है-

*प्रभु तरुतर कपि डार पर।*

भगवान् भूल गये कि मैं स्वामी हूँ और ये बन्दर वन्दर जितने हैं ये हमारे नौकर हैं, दास हैं। वे ऊपर बैठे हैं पेड़ पर। भगवान् नीचे बैठे हैं। अब भगवान् को यह पता हो कि मैं भगवान हूँ तभी तो डांटें उनको। और महापुरुषों को भी भुला दिया योगमाया ने कि मैं महापुरुष हूँ। हनुमान जी भी बैठे हैं ठाट से ऊपर । उनको भी नहीं दिमाग में आ रहा है। जो "#ज्ञानिनां_अग्रगण्यम्" हैं। तो महापुरुषों को पहचानना समझना, असम्भव है। तो फिर क्या करें? क्या इलाज है? बस रोकर भगवान से प्रार्थना करें कि हमको किसी महापुरुष से मिला दीजिए-

*बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता।*

*जब द्रवइ दीन दयाल राघव। साधु संगति पाइये।*

जब भगवान कृपा करेंगे तो वो किसी महापुरुष को किसी बहाने मिला देंगे। लेकिन महापुरुष के मिलने पर भी शर्त वही है कि श्रद्धा हो आपकी पूर्ण।

गुरु वेदान्त वाक्येषु दृढ़ो विश्वासः श्रद्धा। (शंकराचार्य)

श्रृद्धा की परिभाषा है कि गुरु और वेद शास्त्र के ऊपर पूर्ण विश्वास उनकी आज्ञा का पालन हो सैन्ट परसेंट।

*श्रद्धा शब्द कहे विश्वास सुदृढ़ निश्चय।* 
(गौरांग महाप्रभु) 

गौरांग महाप्रभु भी उसकी यही परिभाषा कर रहे हैं और यह पूर्ण विश्वास कब होगा? जब वैराग्य होगा- माने संसार में सुख नहीं है- यह डिसीजन सैन्ट परसैन्ट हो जाए तब फिर उनमें ही सुख है। दो ही चीज तो हैं, दो ही दिशा तो हैं, एक भगवान्, एक माया- एक तरफ तो जाएगा और तीसरा तो जीव ही है। वह दो तरफ में एक तरफ तो जाएगा-

*द्विविधो भूत सर्गोऽयं दैव आसुर एव च।*
*विष्णु भक्ति परो दैव आसुरस्तद्विपर्ययः॥*
(अग्नि पु.) 

एक भगवान का एरिया, एक माया का एरिया और जाने वाला जीव का मन। आप लोग कभी कभी ये भी बोल देते हैं कि हमारा तो मन न भगवान् में लगता है न संसार में लगता है। कहाँ है? पैंडिंग में है ? उसको लॉक कर दिया है कहीं? बकवास करते हो। अगर भगवान में नहीं है तो संसार में है, है, है। पक्का प्रमाण। दो ही क्षेत्र तो हैं।

*अरुणि महर्षि थे। उनके पुत्र उद्दालक। वेद में कथा है। उद्दालक के पुत्र नचिकेता। वो यमराज के पास गये और यमराज से पूछा भई हमारे कल्याण का क्या मार्ग हो सकता है, आप बताइए? उन्होंने कहा-

*श्रेयश्च प्रेयश्च। अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेय*

एक मार्ग है श्रेय, एक मार्ग है प्रेय।

*स्तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति ।*
*हीयतेऽथाद्य उ प्रेयो वृणीते।* 
(कठोप. १-२-१)

यमराज कहते हैं- देखो! एक श्रेय मार्ग होता एक प्रेय मार्ग होता है। जो श्रेय मार्ग को अपनाता है उसका कल्याण हो जाता है। जो प्रेय मार्ग को अपनाता है वो चौरासी लाख में घूमता रहता है। इसका मतलब क्या? इसका मतलब जो भगवान् की ओर जाता है वह श्रेय मार्ग है और जो संसार के सुख भोग के लिये माया की ओर जाता है वो प्रेय मार्ग है। और दो में एक साइड में जाना पड़ेगा। कोई कहे कि हम इस झगड़े में नहीं पड़ते। इम्पॉसिबिल। 

*न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।* 
(गीता ३-५, भागवत ६-१-५३) 

एक क्षण को भी कोई अकर्मा नहीं रह सकता। कर्म करना पड़ेगा और दो ही साइड हैं। श्रेय की ओर जाओ या प्रेय की ओर जाओ। लेकिन श्रेय की ओर कब जाओगे जब प्रेय से ज्ञान हो जाए और वैराग्य हो जाए। श्रेय का तो अनुभव किया नहीं आपने, भगवान् का। और प्रेय का अनुभव किया है। सब इन्द्रियों के सुख आप भोग रहे हैं संसार में। तो यहाँ तो गया ही है मन। ले नहीं जाना है। बहुत अभ्यास हुआ है। अनन्त जन्म बीत चुके- संसार में आनन्द मानते मानते। ध्यान दो- मानते मानते। पाया नहीं? न। लेकिन माना। हमको सुख नहीं मिला। संसार में सुख है। हमारी माँ खराब है औरों की माँ अच्छी होगी, हमारी बीबी खराब है औरों की अच्छी होगी? ना। सबका एक हाल है। ये जो बाहर लोग बोलते हैं क्यो भाई। हाउ आर यू? ऑल राइट। एक भी नहीं है सब रॉँग है। ये पागल है, बकवास करता है ऑल राइट। अजी। अभ्यास है। एटीकेट है। आदत है। अरे प्रेय मार्ग में राइट होगा भला कुछ। सब का हाल बुरा है। अरबपति का तो और बुरा है। यहाँ बहुत से फौरनर्स बैठे हैं। उनके देश में जितने बड़े बड़े आदमी हैं पैसे वाले, वो नींद की गोली खाकर सोते हैं। और हमारी इण्डिया में एक भिखमंगा या एक कुली कबाड़ी फुटपाथ पर खरटि लेकर सोता है। तो संसार में कोई बहुत बड़ा वैभव पा ले तो अधिक सुख मिला उसको? न, न, न सब धोखा है।

*यत्पृथिव्यां ब्रीहियवं, हिरण्यं पशवः स्त्रियः।*
*न दुह्यंतिमनः प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते।।* 
(भागवत ९-१९-१३)

अरे

*सुरपति बाह्यं पदं याचते।*

स्वर्ग सम्राट इन्द्र ब्रह्मा का पद चाहता है। प्यासा है, दुःखी है, अशान्त है, वासनाओं से युक्त है। हमारी पृथ्वी पर कोई तपस्या कर रहा है- ये ध्रुव है, ये भगवान् की भक्ति कर रहा है। और इन्द्र को ईर्ष्या हो रही है- अरे! कहीं मेरा इन्द्रासन न छीन ले। इसके पास अप्सरा भेजो। इसका पतन कराओ। ये ईर्ष्या, द्वेष स्वर्ग के सम्राट को!! वहाँ की पब्लिक का क्या हाल होगा? क्योंकि वहाँ भी माया का आधिपत्य है, जहाँ-जहाँ माया रहेगी वहाँ-वहाँ माया का विकार काम, क्रोध, लोभ, मोह सब रहेंगे। बिना भगवत्प्राप्ति के ये दोष नहीं जायेंगे। एक भी नहीं जायेगा। आप लोग बड़े लाड़ में महात्माओं के पास जाकर कहते हैं “महाराज जी ! हमें गुस्सा बहुत आता है।" और सब ठीक है? हाँ और सब ठीक है। गुस्सा बहुत आता है। अरे गधे! ये गुस्सा क्यों आता है? मालूम है? जो कामना पैदा कर लेता है मन में, कोई कामना पैदा हो गई और वो पूरी नहीं हुई बस गुस्सा आया। गुस्से का कारण कामना। कोई इच्छा पैदा हो गई, इच्छा पूरी नहीं हुई गुस्सा आयेगा। अब इच्छा न पैदा हो इम्पॉसिबल। इसलिये कि इच्छा हमें आनन्द की है। अब आनन्द की इच्छा है तो आनन्द कहाँ है? अगर हमारी बिगड़ी बुद्धि ने कह दिया कि रसगुल्ला में है- दौड़ पड़े। गलत जगह जा रहे हैं बुद्धि की गड़बड़ी से। क्योंकि हमने अपनी बुद्धि को महापुरुष और भगवान् की बुद्धि में नहीं जोड़ा। ठोकर खा रहे हैं, घूम रहे हैं।

तो ये जितने भी दोष हैं जब तक भगवत्प्राप्ति न होगी माया नहीं जायेगी। और जब तक माया नहीं जायेगी तब तक ये सारे दोष रहेंगे। अपना-अपना विषय पाकर बलवान् हो कर प्रकट हो जाते हैं। देखिये इस समय आप लोग कैसे बैठे हैं? कोई आकर देखे भगवान का बाप भी "है सब काम क्रोध, लोभ, मोह से रहित हैं।" फैक्ट है। क्योंकि आप अपनी पूरी ताकत लगा रहे हैं समझने में। तो कोई दोष आप पर हावी नहीं है। लेकिन यहीं बैठे बैठे आपके बगल वाला व्यक्ति जरा यों कर दे- आ गया। अरे बोला भी नहीं कुछ खाली यों धक्का लगा दिया। आ गया। क्या बात है? कोई बात नहीं। ऐसा क्यों किया? अब बातचीत हुई और तुम बेवकूफ हो, तुम गधी हो। तुम... आगे बहुत कुछ हो सकता है। इतने बलवान् हैं सब दोष। अन्दर बैठे हैं घात लगाये हुये। जरा सा एटमॉसफियर मिले और विराट रूप धारण कर लें। ये सब दोष हैं रहेंगे। किसी में कोई दोष कम हो, किसी में ज्यादा हो ये अलग बात है। किसी ने बहुत कामनायें नहीं बनाई तो उसे बहुत क्रोध का भोग भी नहीं करना पड़ेगा। जितनी कम वासनायें होंगी हमारी, हम उतने अधिक शान्त रहेंगे। लेकिन वासना मिटा दें हम सोच के इम्पॉसिबल।हमको जब तक स्प्रिचुअल हैप्पीनेस दिव्यानन्द न मिल जायेगा तब तक हम कामना बनायेंगे। चाहे संसार की कामना बनावें अज्ञान के कारण और चाहे भगवान् की कामना बनावें। यानी चाहे श्रेय में जायें चाहे प्रेय में जायें। यह ज्ञान महापुरुष के द्वारा मिलेगा कि श्रेय क्या है, प्रेय क्या है ? आर महापुरुष को पहिचानना बुद्धि के द्वारा असम्भव है- ये समस्या है। इसको कल हल किया जाएगा।

- जगतगुरुत्तम स्वामी श्री कृपालु महाप्रभु जी के प्रवचन का अंश।

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