।।श्रीराम जय राम जय जय राम।।
धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां
वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तासपत्रयोन्मूलनम्।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृते किं वा परैरीश्वरः
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्।।
–श्रीमद्भागवत, 1/1/2
"महामुनि व्यासवेद के द्वारा निर्मित श्रीमद्भागवतमहापुराण में मोक्षपर्यन्त फल से रहित परम धर्म का निरूपण हुआ है। इसमें शुद्धान्त:करण सत्पुरुषों के जाननेयोग्य उस वास्तविक वस्तु परमात्मा का निरूपण हुआ है, जो तीनों तापों का जड़ से नाश करनेवाली और परम कल्याण देनेवाली है, फिर अब और किसी साधन या शास्त्र से क्या प्रयोजन। जिस समय भी पुण्यात्मा पुरुष इसके श्रवण की इच्छा करते हैं, ईश्वर उसी समय अविलम्ब उनके हृदय में आकर विराजमान (बन्दी) हो जाता है ।"
प्रोज्झित्कैतवः
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प्रोज्झित्कैतवः अर्थात् जहाँ कैतव नहीं है अर्थात किसी प्रकार का कपट नहीं है। परन्तु श्रीधराचार्य जी इसकी टीका करते हुए कहते हैं –"प्रशब्देन मोक्षाभिसन्धिरपि निरस्तः' (श्रीधरी टीका. 1/1/2)
अर्थात् ‘प्र’ उपसर्ग के बल से यहाँ मोक्ष की अभिसन्धि भी समाप्त कर दी गई है, अर्थात् ऐसा भगवद्भजन या भगवत्प्रेम जहाँ व्यक्ति मोक्ष को भी नहीं चाहता– यही है परमधर्म का निर्णय।
"सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात्"
किसी भी पुण्यात्मा के मन में जहाँ और जब भी भगवान् की कथा सुनने का मन हुआ, नाम जप करने, भजन करने का मन हुआ , तत्क्षण भगवान् उसके हृदय में आकर विराजमान(बन्दी) हो जाते हैं ।
भावार्थ
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भागवत में कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड, ज्ञानकाण्ड सब की विशेषता बतायी गयी है। और इसमें जो धर्म बताया गया है, ‘धर्मः प्रोज्झितकैतवोऽत्र परमः’- उसकी विशेषता यह है कि उसमें जरा भी छल-कपट नहीं है। वह परम धर्म है।
‘निर्मत्सराणां सतां’, सामान्य लोगों के लिए नहीं, ऐसे सत्पुरुष - जिनके मन से मत्सरादि सारे भाव निकल गये हों, जो अत्यन्त शुद्धान्तःकरणवाले हों उनके लिए। ऐसा कहने पर लगता है यह तो स्वयं धर्म की परिभाषा है। इसी कारण इस श्लोक पर बड़े-बड़े भाष्य लिखे गये हैं। ‘वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं’ यहाँ पर ऐसी परम वस्तु का निरूपण किया गया है, जो ‘शिवदं’ कल्याणप्रद और ‘तापत्रयोन्मूलनम्’ तापत्रय को जड़ से मिटा देनेवाली है।
‘वास्तवं’ इस वास्तव शब्द का भाव बड़ा अच्छा है। जीव, जगत, माया, ईश्वर ये सब जो हमें अलग-अलग दिखाई देते हैं वे वास्तव में एक ही परमात्म-वस्तु हैं। यहाँ उसी परमात्म-वस्तु का वर्णन किया गया है जो कि जीव, जगत्, ईश्वर के रूप में हमको दिखाई देता है। ‘श्रीमद्भागवते महामुनिकृते’ यह भागवत महामुनिकृत-महामुनि द्वारा रचा गया है। महामुनि का तात्पर्य है वेदव्यास जी। लेकिन ध्यान दें – महामुनि वेदव्यास जी तो स्वयं नारायण भगवान् ही हैं। क्योंकि यह ज्ञान की परंपरा नारायण भगवान् से ही प्रारम्भ हुई है।
"कृष्णं नारायणं वन्दे कृष्णं वन्दे व्रजप्रियम्।
कृष्णं द्वैपायनं वन्दे कृष्णं वन्दे पृथासुतम्।।"
अर्थात् कृष्ण ही नारायण भगवान् हैं। कृष्ण ही व्रजप्रिय, कृष्ण ही द्वैपायन व्यास हैं और कृष्ण ही अर्जुन हैं। सब-के-सब कृष्ण ही हैं। जगत् में बहुत सारे उपाय कहे गए हैं परमात्मा को हृदय में पकड़ने के लिए। परन्तु अन्य साधनों से परमात्मा पकड़ में आयेगा कि नहीं इसमें शंका है। लेकिन भागवत की विशेषता यह है कि ‘सद्यो हृ़द्यवरुध्यतेऽत्र कृतिभिः सुश्रूषुभि’ श्रवणमात्र से भगवान् अपने आप हृदय में प्रकट हो जाते हैं। ‘तत्क्षणात्’ उसी क्षण प्रकट हो जाते हैं, उसमें देर नहीं लगती। यहाँ पर ‘अत्र’ शब्द का कितनी बार प्रयोग किया है।’ धर्मः प्रोज्झित अत्र‘, ‘वेद्यं वास्तवं अत्र’, ‘सद्यो हृद्यवरुध्यते अत्र’। तो इसका भाव क्या है? अत्रैव, केवल यहीं पर परमधर्म का निरूपण किया गया है, यहाँ परमवस्तु का जिस प्रकार बोध कराया गया है, वैसा और कहीं नहीं कराया गया है। यही वह साधन बताया गया है जिसको सुनने मात्र से भगवान् निश्चित रूप से हृदय में पकड़े जोते हैं, प्रकट हो जाते हैं।
–रमेशप्रसाद शुक्ल
–जय श्रीमन्नारायण
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राधे राधे ।